पंद्रह साल बाद सरकार में आने के बाद कांग्रेस ने विरासत में मिले खाली खजाने के बावजूद 2019 में कुशल वित्तीय प्रबंधन के सहारे अपने वादों को पूरा करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। हालांकि भाजपा ने विधायकों के गणित के फेर में उसे बयानबाजी के माध्यम उलझाए रखने की कोशिश की, मगर कुछ ही समय में उसने दूसरे राजनीतिक दलों व निर्दलीय विधायकों का ठोस समर्थन हासिल कर उनके इरादों को ठंडा कर दिया।
लोकसभा चुनाव में हार के बावजूद प्रदेश सरकार अपने बहुमत को बरकरार रखने मे कामयाब रही। इस दरम्यान कांग्रेस ने दो उपचुनाव में जीत हासिल की। साल समाप्त होने के पहले केंद्र सरकार को घेरने के लिए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपने नेतृत्व में आंदोलन कर मोर्चा खोला।
2019 की शुरुआत में सत्ता संभालते ही कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को आर्थिक संकट के दौर का सामना करना पड़ा। एक तरफ विधानसभा चुनाव में किए गए 973 वचन थे और दूसरी तरफ प्रदेश का खजाना खाली था। किसान कर्जमाफी के लिए सरकार ने कई ऐसे खर्चों को रोक दिया, जो गैरजरूरी कामों पर व्यय हो रहे थे।
वित्तीय प्रबंधन करते हुए पहले चरण की कर्जमाफी की और साल के आखिरी तक आते-आते दूसरा चरण शुरू किया। सरकार ने कर्ज लेकर अपनी जरूरतों को भी पूरा किया और चुनावी वचनों को पूरा करने की दिशा में भी कदम बढ़ाए।
सरकार गिराने के प्रचार में लगी रही भाजपा
सरकार गठन के समय कमलनाथ सरकार बहुमत के आंकड़े से मामूली दूरी पर थी। उसे निर्दलीय और बसपा सपा के सहारे बहुमत जुटाना पड़ा। इस बात का सियासी फायदा भाजपा ने उठाया। उसने जनता के बीच सरकार के गिरने की आशंकाओं को पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने दूसरे राजनीतिक दलों व निर्दलीय विधायकों को अपने पक्ष में करने के लिए कभी उन्हें दूर जाने का सोचने का मौका नहीं छोड़ा।
यहां तक कि उनकी धमकी भरी बयानबाजी को भी बर्दाश्त किया। बसपा की रामबाई हो या निर्दलीय सुरेंद्र सिंह शेरा, उन्होंने पहले छह महीने तक सरकार के सिर पर तलवार को लटकाए रखने जैसे हालात बनाए। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में अपने 29 में से 28 प्रत्याशियों की जीत को कांग्रेस का जनाधार कम होने से जोड़ते हुए सरकार की स्थिरता पर सवाल उठाए, मगर झाबुआ उपचुनाव में कांग्रेस की एकतरफा जीत ने सरकार को मजबूती दी।
अपनों से भी जूझती रही कांग्रेस
प्रदेश में सरकार बनने के बाद कांग्रेस को अपनों से भी जूझना पड़ा। पार्टी की राजनीति के विपरीत ध्रुव माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह व पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से भाजपा को सरकार पर हमले करने का मौका मिलता रहा।
वास्तव में दिग्विजय सिंह द्वारा सरकार चलाए जाने के आरोप भी लगे। इन आरोपों पर घी का काम किया, दिग्विजय-वन मंत्री उमंग सिंघार विवाद ने। यह विवाद करीब तीन सप्ताह तक चला और हाईकमान तक इसकी गूंज पहुंची। दूसरी तरफ सिंधिया की अपनी पार्टी के लोगों से नाराजगी की खबरें भी सुर्खियों में रहीं।
इसी तरह एआईसीसी के महासचिव व प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया प्रदेश सरकार में अशासकीय सदस्यों की राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर सरकार से नाराज हो गए। महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन के बाद फार्म में आई पार्टी ने केंद्र सरकार के खिलाफ अपने आंदोलनात्मक रवैए को तेज किया और सभी प्रदेशों में मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने का एलान किया। वहीं मप्र में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने न्याय यात्रा निकालकर मोदी सरकार के नागरिकता कानून के संशोधनों व एनआरसी के खिलाफ जमकर हमला बोला।
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