26 जुलाई भारत के लिए गर्व का दिन है. क्योंकि आज के ही दिन पाकिस्तान के खिलाफ देश की सेना ने कारगिल में विजय पताका लहराया था. इस लड़ाई में कुछ ऐसे भी वीर सपूत थे, जो देश के रियल हीरो के तौर पर उभर कर सामने आये. उन्हीं में से एक थे हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर घाटी से ताल्लुक रखने वाले परमवीर चक्र विजेता अमर शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा. जिन्होंने एक के बाद एक करके दुश्मनों के दांत खट्टे किये और अंततः ख़ुद भी देश की बलिवेदी पर शहादत प्राप्त कर गये. लेकिन शहादत के 19 साल बाद अब शहीद के परिजनों की चिंता बढ़ गई है.
क्यों चिंतित हैं शहीद के परिजन?
करगिल युद्ध के 19 साल बाद भी सरहदों पर बिगड़े हालात को लेकर शहीद के परिजन चिंतित हैं. विक्रम बतरा के पिता एल बत्रा ने वहां पर सख्त कदम उठाने की बात कही है. शहीद विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा और माता कमलकांता बत्रा ने कहा कि कारगिल को सेना के जावानों ने अपनी कुर्बानियां देकर फतेह कर लिया है, परन्तु कश्मीर में अभी भी अशांति चल रही है जिसका कोई ना कोई स्थाई या कूटनीतिक समाधान निकालना चाहिए. ताकि जो रोज जवान शहीद हो रहे हैं, वह बंद हों क्योंकि देश के जवानों की जान बहुत कीमती हैं.
हर क्षेत्र में अव्वल
परमवीर चक्र विजेता पालमपुर निवासी जीएल बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर, 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बेटों का जन्म हुआ. माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा. लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल. पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया. सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा. स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था
सेना में चयन
विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया. जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया. दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली. उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए. 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया. हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया. इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया.
कारगिल का शेर
बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया. शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई. अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा.
जूनियर को बचाने में हुए शहीद
इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया।इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई. उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा. अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके. लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे. जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे. तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे “जय माता दी” कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुये.
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