इंदौर। कोरोना के कारण मार्च में लगे लॉकडाउन के आठ महीने बाद शहर का रंगमंच रविवार को एक बार फिर अभिनय और संवादों से रोशन हो उठा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर लगे विराम को महानाट्य 'खूब लड़ी मर्दानी' ने तोड़ा और शहर में दोबारा सांस्कृतिक आयोजनों की शुरुआत की। संस्था नमो नमो शंकरा द्वारा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर केंद्रित इस महानाट्य का मंचन माई मंगेशकर सभागृह में हुआ।
महानाट्य की शुरुआत उम्मीद के अनुरूप थी। पहला दृश्य सम्मोहित करने वाला था जिसमें न केवल सिंहासन बल्कि बैकग्राउंड में लगे डिजिटल प्रिंट ने खूबसूरत महल की छवि और आगे हो रही आतिशबाजी ने महल में लगे फव्वारे का दृश्य उभारा। हर दृश्य के अनुरूप बैकग्राउंड का होना तारीफ का हकदार था। बात अभिनय की करें तो रानी लक्ष्मीबाई का किरदार निभाने वाली कलाकार दिविका तपस्वी ने बेहतर अभिनय किया। गंगाधर राव की भूमिका निभाते हुए नाटक के निर्देशक संदीप दुबे ने भी प्रभावी अभिनय किया, लेकिन कई कलाकारों का अभिनय कमजोर रहा। संवाद लेखन प्रभावी था, लेकिन भाषा-बोली को लेकर भटकाव नजर आया।
उदाहरण के लिए खुदा बक्श का 'महाराज क्षमा करें' और रानी लक्ष्मीबाई का 'तमाशबीन' जैसे शब्दों का प्रयोग कानों को खटका। ऐसे कई शब्द नाटक में शामिल थे जो किरदार से बिलकुल मेल नहीं खा रहे थे। इसी तरह वेशभूषा पर भी ध्यान नहीं दिया गया। देश, काल, परिस्थिति का महत्व प्रस्तुति में बहुत मायने रखता है, लेकिन नाटक में लक्ष्मीबाई का करवाचौथ पूजन करना और छलनी से राजा को देखना जैसे दृश्य रंग नहीं जमा सके क्योंकि महाराष्ट्रीयन परिवारों में यह पर्व मनाया नहीं जाता। झलकारी बाई का किरदार निभा रही डिंपल अग्रवाल और लक्ष्मीबाई का किरदार निभा रही कलाकार के बीच उम्र व कदकाठी का अंतर दिन-रात का दिखा, जबकि इतिहास कहता है कि दोनों में बहुत समानता थी। संस्था रंगमंच आर्ट ऑफ ड्रामा की इस कच्ची-पक्की कोशिश ने दर्शकों को थोड़ा निराश किया।
दर्शकों को किया सैनिटाइज
महीनों बाद हुए इस नाटक को देखने से पहले दर्शकों को बकायदा सैनिटाइज किया गया और उनकी थर्मल स्कैनिंग भी हुई। सभागृह में इस बात का भी ध्यान रखा गया कि हर दर्शक के बीच में पर्याप्त दूरी हो, लेकिन अगली पंक्तियों में बैठे ही लोगों ने इस प्रोटोकॉल को नहीं माना।
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