- मनोवैज्ञानिकों का कहना है, ऐसे कंटेंट की अधिकता लोगों में अवसाद पैदा करती है
- काल्पनिक खतरों को देखने के बाद लोग वास्तविकता का सामना नहीं कर पाते
कोरोना वायरस महामारी के बीच सोशल मीडिया की भाषा में डूम्स स्क्रॉलिंग शब्द जोरशोर से उभरा है। यह शब्द महाविनाश की खबरों के प्रति लोगों का झुकाव दर्शाता है। सोशल मीडिया नेटवर्क पर पहले ही भय और उत्तेजना फैलाने, भावनाएं भड़काने वाली पोस्ट को आगे बढ़ाया जाता है। 2020 का साल तो ऐसे कंटेंट के लिए बहुत अनुकूल साबित हो रहा है। लॉकडाउन के कारण अरबों लोग घरों में कैद हैं। उनका ज्यादा समय इंटरनेट के साथ बीतता है। इस हलचल के बीच कुछ नेटवर्क ने दहशत फैलाने वाले कंटेंट को आगे बढ़ाकर अपने सब्सक्राइबर की संख्या में इजाफा किया है।
मनोवैज्ञानिक पैट्रिक कैनेडी विलियम्स कहती हैं, मनुष्य सबसे पहले डराने वाली जानकारी के प्रति आकर्षित होता है। यह स्वाभाविक प्रवृत्ति सोशल मीडिया प्लेटफार्म के लिए अक्सर फायदेमंद साबित होती है। जूलिया बैल अपनी नई किताब-रेडिकल अटेंशन में लिखती हैं, “ऐसे अल्गोरिदम डिजाइन किए गए हैं, जो सबसे पहले हमारा ध्यान भड़काऊ जानकारी के प्रति खींचते हैं। हम जितना लंबे समय तक प्लेटफार्म से चिपके रहेंगे, उसे पैसा कमाने का उतना अधिक मौका मिलेगा”।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है, सोशल मीडिया की लत का एक अंधेरा पहलू भी है। लगातार खतरों से जुड़ी जानकारी का सामना करने से नकारात्मक भावनाएं पैदा होती हैं। संबंधित व्यक्ति चिंता और अवसाद का शिकार हो सकता है। कैनेडी विलियम्स कहती हैं, “सोशल मीडिया के माध्यम से यदि कोई खतरा बार-बार बताया जाता है तो वास्तविक खतरा सामने आने पर लोग उसका मुकाबला नहीं कर पाते हैं”। एक सोशल मीडिया साइट ने खौफ फैलाने वाला कंटेंट आगे बढ़ाकर पिछले दो साल में अपने सब्सक्राइबर की संख्या तीन गुना से अधिक बढ़ा ली है। इसके कंटेंट में मुख्य रूप से खबरों की हैडलाइन, मीम्स और रेंट्स शामिल हैं। ऐसे कंटेंट की लत लग जाती है। इसमें तरक्की एक कल्पना है, पूंजीवाद उतार पर है और महाविनाश नजदीक है जैसी जानकारियां बहुत अधिक आती हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसा कंटेंट निराशा और अवसाद फैलाता है।
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