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प्राचीन काल से ही पान का उपयेाग मुखशुद्धि, सुगंध वृद्धि, रुचि वृद्धि, देवपूजनार्थ कार्यों के लिए किया जाता



  • हम सब पान से परिचित हैं। इसे खाया भी जाता है और यह पूजन-सामग्री की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है।

  • किंतु पान के इतिहास के बारे में हममें से कम ही लोगों को मालूम होगा। तो चलिए, जानते हैं।

    प्राचीन काल से ही पान का उपयेाग मुखशुद्धि, सुगंध वृद्धि, रुचि वृद्धि, देवपूजनार्थ कार्यों के लिए किया जाता रहा है। आचार्य चरक और सुश्रुत ने भी पान का गुणगान किया है। वैदिक काल में इसे नागवल्ली कहा जाता था, क्योंकि कथा के अनुसार इसकी उत्पत्ति वासुकि नाग की अंगुली से हुई थी। आरम्भ में पान का व्यवहार औषधि के रूप में किया जाता था। कालांतर में यह शौक़ीनों की प्रिय वस्तु बनी। संगीतप्रेमियों ने पान के महत्व को सबसे अधिक समझा। वो रियाज़ के समय पान में कस्तूरी, जायफल, मुलेठी, लौंग, इलायची व सुपारी डालकर गिलौरियां मुंह में दबा लिया करते, जिससे उनका कंठ तर रहता और मिज़ाज में रौनक बनी रहती।


    भारत के कोने-कोने के लोग पान से परिचित हैं। पान की दुकानें क़दम-क़दम पर मिलती हैं। वास्तव में यह गुडुच्यादि वर्ग की एक वनस्पति है। संस्कृत में इसे ताम्बूलम् कहा गया है। हिंदी में यह पान के अलावा नागरवेल भी कहलाता है। महाराष्ट्र में यह बिड़याची पाने बन गया है। अंग्रेज़ी में यह बीटल लीफ़ है। बनारसी पान तो पूरी दुनिया में मशहूर है, लेकिन मद्रासी, कपूरी, सुहागपुरी, रामटेकी, महोवा पान भी कम ख्यात नहीं। पान का पत्ता चखते ही उसकी क़िस्म के बारे में बता देने वाले महारथी भी देश में कम नहीं हैं। यहां यह ग़ौरतलब है कि पान में कुछ मात्रा में पियोरिन, पियोरिडन, एरेकोसिन मर्क्यूरिक जैसे विषैले तत्व भी होते हैं। चूना, कत्था, सुपारी का सम्मिश्रण इन तत्वों को शिथिल कर देता है।


    पान में तेरह गुण बताए गए हैं- कटु, तिक्त, ऊष्ण, मधुर, क्षार, कषाय, वातहर, कफनाशक, कृमिघ्र, वातनाशक, पित्तप्रकोधक, दुर्गंधनायक और पाचक। पान का द्रव्यों के साथ सेवन करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। मुखशुद्धि तो होती ही है। यह ज़ुकाम, कंठप्रवाह, स्वरभंग, खांसी आदि में भी लाभदायक है। आयुर्वेद चिकित्सा में पान का आसव तैयार कर विभिन्न रोगों में देने का विधान है। पान से एक प्रकार का शरबत भी बनाया जाता है।




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