चटर्जी नाइट्स... सन 1975 से 2000 तक कुछ ऐसा जलवा था इस ऑर्केस्ट्रा का कि लोग रात की महफिल के लिए शाम 5 बजे से जगह रोक लेते थे। शमशाद बेग़म और जगजीत सिंह मुरीद रहे। शहर का पहला ऑर्केस्ट्रा था, कर्ताधर्ता थे प्रभात चटर्जी... मंगलवार को वे स्कीम 140 की ईडब्ल्यूएस मल्टी के एक कमरे में मिले। जहां दो दशक से गुमनामी के अंधेरों में जी रहे थे। प्रशासन ने उन्हें आस्था वृद्धाश्रम पहुंचाया है। अब शहर ही अपने इस बुजुर्ग का खयाल रखेगा।
बिना सहारे खड़े नहीं हो पाते, डेढ़ महीने से नहाए तक नहीं
प्रभात ने जिंदगी संगीत के बाद तीन भाइयों के नाम कर दी थी। खुद शादी नहीं की। महफिलें छूटी तो भाइयों ने छोड़ दिया। कौन यहां पटक गया, याद नहीं। एक भाई खाना दे जाता था। कई बार नहीं आता तो भूखे रहते। डेढ़ महीने से नहाए नहीं, खुद खड़े नहीं हो पाते। कुछ संगीतप्रेमियों की खबर पर कलेक्टर मनीष सिंह ने मदद पहुंचाई।
शोहरत की बुलंदी पलभर का तमाशा है, जिस डाल पर बैठे हो वह टूट भी सकती है
जब उनसे पूछा - बाबा ! 20 साल अकेले बड़े बुरे हाल में रहे, हिम्मत नहीं टूटी...? तो आंखें नम हो आईं मगर बेलौस मुस्कराहट के साथ बोले - मैं गालिब सा करीना चाहता हूं, मैं हजारों साल जीना चाहता हूं...। फिर प्रभात जिंदगी के सफहे खोलते गए। कहने लगे...“लोगों के पास सिक्स्थ सेंस होता है। मेरे पास सेवेंथ सेंस भी है। वो है जुगाड़ का सेंस। इसी ने अंधेरों में मुझे डूबने नहीं दिया। घर से ही संगीत के संस्कार मिले थे। अकॉर्डियन पर पुराने गीत बजाना शुरू किया तो मेरी चर्चा होने लगी।
शमशाद बेगम ने सुना है मुझे। वो अकॉर्डियन अब मेरे पास नहीं है। पांच लाख का था, जिसे अपनों ने ही चंद रुपयों में कबाड़ की तरह बेच दिया, पर मुझसे अलग नहीं हुआ वो बाजा। वो मेरी रगों में है। वो शेर है ना कि “शोहरत की बुलंदी भी पलभर का तमाशा है, जिस डाल पर बैठे हो वो टूट भी सकती है’। रुपए बेशुमार ऑफर हुए, कभी समझौता नहीं किया। अब कोई बड़ी ख़्वाहिश तो नहीं, पर चाहता हूं ऋषभ नाम से जाना जाऊं। सात सुरों में ऋषभ यानी रे को साधना सबसे मुश्किल है। दु:खों का क्या है, अपनों ने ही दिए। मैं पूरी उम्र इसी अंदाज़ में जिऊंगा। अपनी हथेली दिखाते हुए कहते हैं देखो दो जीवन रेखाएं हैं मेरी। एक जीवन 76 की उम्र तक जिया। अब दूसरा जीवन शुरू। -जैसा अंकिता जोशी को बताया
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