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अपनी हिंदी 'स्वार्थ नहीं परमार्थ':हिंदी को बढ़ाना चाहते हैं, तो पुस्तकें लिखें और बेचें भी

 

अमेरिका में सबसे ज़्यादा पुस्तकें पढ़ी जाती हैं, तो इसका एक कारण है कि वहां सबसे अधिक लिखी और बेची भी जाती हैं। पुस्तकों की बिक्री संख्या को किसी भाषा की पहुंच और लोकप्रियता का पैमाना माना जा सकता है। अत: हिंदी को बढ़ाना चाहते हैं, तो पुस्तकें लिखें और बेचें भी।

बेचने को प्राय: स्वार्थ से जोड़ा जाता है और लेखकों को इस उपक्रम से दूर रहने की सलाह दी जाती है। लेकिन इस चक्कर में यह तथ्य अनदेखा रह जाता है कि पुस्तकों की बिक्री लेखक को रॉयल्टी के रूप में आर्थिक लाभ ही नहीं दिलाती, बल्कि उसकी भाषा के लिए नए पाठक और लेखक भी बनाती है।

इसलिए, अपनी पुस्तक अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाना और इस तरह पहुंचाना कि उसके पढ़े जाने की अधिकतम संभावना हो, लेखक का कर्तव्य है। आप किताब लिखकर उसका प्रचार करेंगे, तो शुरुआत में आपके व्यक्तिगत दायरे के लोग उसे ख़रीदेंगे। हो सकता है कि उनमें से कई ने कभी कोई पुस्तक न ख़रीदी हो। संभव है, किसी ने पाठ्यपुस्तकों के अलावा कुछ न पढ़ा हो। ऐसे लोग जब क़ीमत देकर पुस्तक ख़रीदेंगे, तो उसे पढ़ना भी चाहेंगे। मेरे परिचित ने क्या लिखा है, ऐसी उत्सुकता भी होगी। मुमकिन है, कुछ लोग ख़ुद भी लिखने के लिए प्रेरित हों। इस तरह पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा, जो अंतत: भाषा के हित में ही होगा।


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