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लघुकथा 'जीवनसाथी':जीवनसाथी के रहते उसकी कद्र करना ज़रूरी है, ये बात अक्सर सभी देर से समझते हैं

 

  • पत्नी को अपने जीवन की तमाम समस्याओंं की जड़ कहने वाले मित्र से कैसे कहूं कि आज उसे जीवनसाथी का दर्जा न दो।

लगभग एक माह के उपरांत हम दोनों मित्र कॉलोनी के बाग़ीचे की बेंच पर गुमसुम मुद्रा में बैठे थे। आख़िर ख़ामोशी को चीरते हुए मेरा दोस्त कुछ जैसे बुदबुदाने लगा। मैं पूछता उससे पहले ही उसके दुख का सैलाब जैसे फूट पड़ा। वो फफकते हुए कहने लगा, ‘ क्या करुंगा अब मैं, इतनी जल्दी चली गई वो। उसके जैसे कोई नहीं हो सकता, कितना ख्याल....’

मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बीच में टोका, ‘बस कर यार सब ठीक हो जाएगा।’ धैर्य बंधाते हुए मैंने घर चलने को कहा। उस रात मैं तनिक भी सो ना सका। हज़ारों प्रश्नों ने मानों मुझे अपने आगोश में पूर्ण रूप से जकड़ लिया हो। उस दोस्त के सामने चुप रह गया, पर दिल में बहुत कुछ था, ‘कैसे कह दूं मित्र तुझे, अब क्यों टूट रहे हो? तुम्हीं तो उनकी टोका-टाकी से और ना जाने कितनी कमियों से सदैव अवसाद में रहते थे।

जब औरतों पर चुटकुले सुनाए जाते तो सबसे ज़्यादा तुम्हें ही लगता था कि औरतों ने मर्दों की ज़िंदगी हराम की हुई है। इसलिये मुझे माफ़ कर दो मित्र, आज मैं तुम्हारे उसी मुख से भाभी की तारीफ़ नहीं सुन पाऊंगा। काश, कभी ये तारीफ़ के दो बोल उनके समक्ष बोल दिए होते।

तुम तो बहुत समझदार हो मित्र, मैं तुम्हें क्या समझाऊं? फिर भी एक बात ज़रूर कहूंगा, दिल की बात कहने, जीवनसाथी की अहमियत समझने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। कम से कम तुम्हारे लिए देर हो चुकी है।’


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