रचयिता-शीलचंद्र शास्त्री, ललितपुर उ.प्र
तपती दोपहर जेष्ठ मास की, उगले सूरज आग।
तन में तनिक चैन नहीं पाते, जलें कृषक के भाग।
झर-झर झरते मेघ गगन से, बरसे मूसलधार।
हाड़ कंपाती ठंड में तन-मन, हो जाते लाचार।
कैसे जोतें हल खेत में, गिरबी रखे हैं बैल।
विपदा का है घोर अंधेरा, नहीं सूझती गैल।।
सदा दूध का कर्ज चुकाती आगे आती माँ।
सुख-दुख में सखी-सहचरी, संग देती वामा।
जुतीं बैल बन करके हल में, जाकर माँ-लाड़ी।
तीनों मिलकर खींच रहे हैं, गृहस्थी की गाड़ी।
बंजर धरती में हल-धर कर, हलधर बनकर आएं।
रुक्ष-कुक्षि को रत्न-प्रगल्भा कर मोती उपजाएं।
स्वेद-बिन्दुओं से सिंचित कर, धरती की प्यास बुझाएं।
मेहनत के मोती बोकर सोने सी फसल उगाएं।
सारे जग के क्षुधा रोग का, करते-औषधि उपचार।
अन्न-प्रदाता कृषक-वैद्य क्यों, रहते बेबस लाचार ?
माँ सी ममता भरे हृदय में, जो भोजन भर पेट कराते।
कैसी ‘शील’ ! विधि की लाचारी, वही भूखे सो जाते ?
संकलन-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
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