हमारे आसपास एक शब्द की बड़ी गूंज सुनाई दे रही है और वह शब्द है ‘विकास’। दूसरी तरफ तमाम रिपोर्ट्स आ रही हैं जो सोचने पर विवश करती हैं कि क्या यही विकास है? यह सभी के लिए है? कई सवाल घिर आते हैं, मसलन एक तरफ तो बम्पर उत्पादन से गोदामों में इतना अनाज भरा हुआ है कि साल भर पूरे देश का पेट आराम से भर सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ पोषण व स्वास्थ्य रिपोर्ट में पोषण स्तर पहले से बुरा पाते हैं, मानव विकास सूचकांक में नीचे खिसक जाते हैं तो लैंगिक समानता के मानकों पर 112 वें नंबर पर पहुंच जाते हैं। ऐसे में क्यों न कुछ पल ठहरकर इस ‘विकास’ शब्द के बारे में सोच लिया जाना चाहिए?
स्वास्थ्य के मोर्चे पर हालात
हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की पांचवीं रिपोर्ट में देश के 22 राज्यों के स्वास्थ्य और पोषण मानक सामने आए हैं। कुपोषण भारत का एक राष्ट्रीय शर्म का विषय रहा है। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले सर्वेक्षण की तुलना में हमने कोई खास प्रगति नहीं की है, बल्कि कई राज्यों में स्थिति पहले से ज्यादा ख़राब हो गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आर्थिक विकास या आधारभूत संरचनाओं जैसे सड़क, भवन बनवाने को ही विकास माना जाना चाहिए, बिना मानवीय और पर्यावरणीय मानकों के क्या हम विकास शब्द से न्याय कर पा रहे हैं? ताजा आंकड़ों को पिछले सर्वेक्षण से मिलाकर देखें तो 22 में से केवल एक राज्य नगालैंड है जिसने अपने यहां हर साल कम वजन के बच्चों में 2.6 प्रतिशत की कमी की है, जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 1.1 प्रतिशत की दर से कुपोषण कम हुआ है, बाकी सारे राज्य शून्य प्रतिशत से कम की दर पर अटके हुए हैं। कुपोषण की गंभीर स्थिति भी चार राज्यों से बढ़कर 14 राज्यों में हो गई है। 13 राज्य ऐसे हैं जहां कि गंभीर कुपोषण (वास्टिंग) घटने की जगह बढ़ गया है।
20 करोड़ लोग मनोरोगों के शिकार
भारत में अब लगभग बीस करोड़ से भी अधिक लोग मानसिक रोगों से ग्रसित हैं और यह नई सामाजिक स्वास्थ्य महामारी का रूप ले रही है। इंडियन जर्नल ऑफ साइक्रेटी के मुताबिक इससे बचने के लिए ‘मेंटल हेल्थ केयर एक्ट-2017’ लागू करने के लिए 94,073 करोड़ रुपए की जरूरत है। लेकिन वित्त वर्ष 2020 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए केवल पचास करोड़ रुपए का प्रावधान किया था।
मानव विकास सूचकांक में फिसले
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी मानव विकास रिपोर्ट 2020 के अनुसार मानव विकास सूचकांकों में भारत 129वें स्थान से गिरकर 131वें स्थान पर पहुंच गया है। ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स दुनिया में लैंगिक आधार पर समानता व सम्मान के नजरिए से देशों की रैंकिंग प्रस्तुत करता है। ताजा रिपोर्ट में भारत का 153 देशों में 112वां स्थान है। एक भेदभाव आधारित दुनिया विकास का आदर्श नहीं बन सकती है।
पर्यावरण की भी अनदेखी
पर्यावरणीय पक्षों को देखे बिना विकास को किस तरह से देखा जाएगा? ‘ग्लोबल एलांयस आन हेल्थ एंड पॉल्युशन’ के मुताबिक विश्व में 83 लाख लोगों की प्रदूषण के कारण मृत्यु हुई है। इनमें से 23 लाख लोग भारत के हैं। यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 के मुताबिक दुनियाभर में 2019 में 67 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई। इनमें 18 लाख चीन में और 16 लाख भारत में दर्ज हुईं। ऐसे में विकास की बयार में पर्यावरण कहां जाकर ठहरेगा?
नागरिकों की सम्पन्नता के मामले में हमारी अर्थव्यवस्था 148वें स्थान पर
स्टेटिस्टिक टाइम्स में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हवाले से बताया गया है कि वर्ष 2020 की स्थिति में सात सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं - अमेरिका (20.8 लाख डॉलर), चीन (15.22 लाख डॉलर), जापान (5.1 लाख डॉलर), जर्मनी (3.78 लाख डॉलर), ब्रिटेन (2.64 लाख डॉलर), भारत (2.59 लाख डॉलर) और फ्रांस (2.55 लाख डॉलर)। लेकिन प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर पता चलता है कि वास्तव में नागरिकों की सम्पन्नता के मामले में इन देशों के अलावा कई ऐसे देश हैं, जो इस सूची में नहीं दिखते लेकिन कहीं ज्यादा संपन्न हैं, जैसे मकाओ, लक्जमबर्ग, सिंगापुर, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड आदि। इसका मतलब यह है कि भारत की 1.35 अरब जनसंख्या के कारण सकल घरेलू उत्पाद के मामले में भले ही देश छठी अर्थव्यवस्था दिखाई देता है, लेकिन हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी तो महज़ 1877 डॉलर प्रति व्यक्ति है। इस तरह नागरिक सम्पन्नता के मान से भारत की अर्थव्यवस्था 148वें स्थान पर आती है, छठे स्थान पर नहीं।
इसका क्या कोई विकल्प है?
महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि ‘भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।’ इसे विकास के संदर्भ में भी समझा जाना चाहिए। हमारा विकास केवल संसाधनों के उलीचे जाने से नहीं होना चाहिए। महात्मा गांधी की यह बात भी याद आती है कि ‘यह धरती सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन एक भी व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती।’ सोचना चाहिए कि क्या विकास का कोई ऐसा तरीका हो सकता है, जहां पर मानवीय विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए। उसमें समानता का, पर्यावरण का और स्थायित्व का ख्याल रखा जाए। गांधी कहते हैं, ‘भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्तरंजित मार्ग पर नहीं है, जिस पर चलते-चलते पश्चिम खुद थक गया है। भारत का भविष्य सरल धार्मिक जीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है।’ जहां जमीन कम हो और लोग ज्यादा, वहां विकास के नजरिये में फर्क तो होना चाहिए। गांधी यह भी कहते हैं, ‘हम सच्चा उद्योग करें तो हिंदुस्तान के छोटे-छोटे उद्योगों से करोड़ों रुपयों का धन पैदा कर सकते हैं। उसमें पैसे की भी विशेष आवश्यकता नहीं है, जरूरत है तो लोगों की मेहनत की।’
दुनिया में कितना पीछे भारत
94 वें नंबर पर है वैश्विक भुखमरी सूचकांक में
131 वें नंबर पर है मानव विकास सूचकांक में
129 वां नंबर - लैंगिक असमानता सूचकांक
142 वां नंबर - विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक
120 वां नंबर वैश्विक पेयजल गुणवत्ता सूचकांक
139 वां नंबर - स्वच्छता और पेयजल सूचकांक
148 वां नंबर - जैव विविधता
145 वां नंबर - प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन सूचकांक
(स्रोत : यूएनडीपी, यूएनईपी, येल विश्वविद्यालय - ई पी आई 2020 की रिपोर्ट्स)
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक और अशोका फैलो हैं)
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