इसी महीने की सत्ताइसवीं तारीख़ को ईस्वी सन् 1797 में असदुल्ला ख़ां आगरे में जन्मे थे, जो आगे चलकर ग़ालिब के नाम से दुनिया में पहचाने गए।
उर्दू में उनसे पहले भी शायर हुए थे और बाद में भी बहुत हुए, लेकिन ग़ालिब की अदा निराली और क़द सबसे बुलंद है।
अंदाज़े-बयां और है, यह तो अपने बारे में ग़ालिब ख़ुद ही बतला गए, लेकिन उनके हुनर से मुतास्सिर होने वालों ने पाया कि उनके जैसा तरन्नुम, ज़िंदादिली, फ़लस्फ़ाई ऊंचाई, ज़िंदगी के लिए दरवेशों जैसी दूरंदेशी और तमाम बातों को कहने की मुख़्तलिफ़ अदा ने जितने चाहने वाले उनको दिलाए, किसी और को नहीं दिलाए हैं।
आलम यह है कि उनकी कही बातें अब मुहावरों में ढल गई हैं, आम बोलचाल का हिस्सा बन गई हैं- ये किसी भी शायर का सबसे बड़ा हासिल होता है।
मिर्ज़ाजी की यौमे-पैदाइश के मौक़े पर हम उनकी चुनिंदा ग़ज़लों का एक गुलदस्ता पेश कर रहे हैं। यह चयन राजपाल एंड संस की अत्यंत लोकप्रिय शायर शृंखला के नवीनतम संस्करण से प्रस्तुत किया जा रहा है। इस शृंखला के सम्पादक प्रकाश पंडित और सह-सम्पादक सुरेश सलिल हैं।
1.
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
तिरे वा’दे पे जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता
कहूँं किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूं न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’ तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख्वार होता
मायने... विसाल-ए-यार : प्रेमी से मिलन/ तीर-ए-नीम-कश : अनमने ढंग से चलाया गया तीर/ ख़लिश : वेदना/ नासेह : उपदेशक/ चारासाज़ : उपचारक/ ग़म-गुसार : हितैषी/ ग़र्क़-ए-दरिया : नदी में डूबना/ मसाईल-ए-तसव्वुफ़ : दर्शन सम्बंधी प्रश्न/ वली : सिद्धपुरुष/ बादा-ख्वार : शराबी
2.
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की दर ओ दीवार से टपके है बयाबां होना
वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना
की मिरे क़त्ल के बा’द उस ने जफ़ा से तौबा हाए उस ज़ूदे-पशीमां का पशीमां होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’ जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना
मायने... दुश्वार : कठिन/ मयस्सर : मुनासिब/ गिर्या : आर्तनाद/ ज़ूदे-पशीमां : शीघ्र लज्जित हो जाने वाले/ हैफ़ : अफ़सोस
3.
जहां तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं ख़ियाबां-ख़ियाबां इरम देखते हैं
दिल-आशुफ़्तगां ख़ाले-कुंजे-दहन के सुवैदा में सैरे-अ़दम देखते हैं
तमाशा कर ऐ मह्वे-आईनादारी तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
तेरे सर्वे-क़ामत से इक क़द्दे-आदम क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं
सुराग़े-तुफ़े-नालाले दाग़े-दिल से कि शब-रौ का नक्शे-क़दम देखते हैं
बना कर फ़कीरों का हम भेस ग़ालिब तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं
मायने... ख़ियाबां : क्यारी/ दिल-आशुफ़्तगां : परेशान-हाल/ ख़ाले-कुंजे-दहनर : अधर के कोने का तिल/ सुवैदा : दिल का दाग़/ सैरे-अ़दम : अनस्तित्व का तमाशा/ सर्वे-क़ामत : दरख़्त जैसा क़द/ फ़ित्ने : उपद्रव/ सुराग़े-तुफ़े-नाला : आह की गर्मी का पता/ शब-रौ : रात का राही
4.
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही
क़तअ कीजे न तअल्लुक़ हम से कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुस्वाई? ऐ वो मजलिस नहीं ख़िल्वत ही सही
हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा करते हैं न सही इश्क़ मुसीबत ही सही
हम भी तस्लीम की ख़ू् डालेंगे बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए असद गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
मायने... क़तअ : तोड़ना/ अदावत : दुश्मनी/ ख़िल्वत : एकांत/ तर्क़-ए-वफ़ा : निष्ठा का त्याग/ तस्लीम की ख़ू् : मान लेने का ढंग/ बेनियाज़ी : उपेक्षा
5.
जाती है कोई कश्मकश अंदोह-ए-इश्क़ की दिल भी अगर गया तो वही दिल का दर्द था
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था
अहबाब चारासाज़ी-ए-वहशत न कर सके ज़िंदां में भी ख़याले-बयाबां-नवर्द था
तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं मजमुआ-ए-ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था
दिल ता जिगर कि साहिल-ए-दरिया-ए-ख़ूँ है अब इस रहगुज़र में जल्वा-ए-गुल आगे गर्द था
ये लाश-ए-बेकफ़न ‘असद’-ए-ख़स्ता-जां की है हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था
मायने... अंदोह-ए-इश्क़ : प्रेम के दु:खों की/ पेश-तर : पहले/ अहबाब : दोस्त/ चारासाज़ी-ए-वहशत : प्रेमोन्माद का इलाज/ ज़िंदां : कारागार/ ख़याले-बयाबां-नवर्द : जंगलों में घूमना/ ख़स्ता-जां : सख़्त जान/ हक़ मग़फ़रत : ख़ुदा बख़्शे
6.
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल कहां कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ’ पाया
इश्क़ से तबीअ’त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
सादगी ओ पुरकारी बे-ख़ुदी ओ हुश्यारी हुस्न को तग़ाफ़ुल में जुर्रत-आज़मा पाया
ग़ुंचा फिर लगा खिलने आज हम ने अपना दिल ख़ूँ किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया
हाल-ए-दिल नहीं मा’लूम लेकिन इस क़दर या’नी हम ने बारहा ढूंढा तुम ने बारहा पाया
शोर-ए-पंद-ए-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का आप से कोई पूछे तुम ने क्या मज़ा पाया
मायने... ज़ीस्त : जीवन/ दर्द-ए-बे-दवा : लाइलाज/ तग़ाफ़ुल : बेपरवाही/ जुर्रत-आज़मा : साहसी/ ग़ुंचा : कली/ शोर-ए-पंद-ए-नासेह : उपदेशक के शोर
7.
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा, मेरे आगे
होता है निहां गर्द में सहरा मेरे होते घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया, मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे
नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा क्योंकर कहूं, लो नाम न उनका मेरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं, आंखों में तो दम है रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना, मेरे आगे
मायने... बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल : बच्चों का खेल/ औरंग-ए-सुलेमां : सुलेमान का सिंहासन/ ऐजाज़-ए-मसीहा : चमत्कार/ निहां : निहित/ जबीं : माथा/ रश्क : ईर्ष्या/ वस्ल : मिलन/ शबे-हिजरां : वियोग की रात/ जुम्बिश : कम्पन/ साग़र-ओ-मीना : जाम और सुराही
8.
है बस-कि हर-एक उन के इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमां और
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात दे और भी दिल इनको जो न दे मुझको ज़ुबाँं और
अबरू से है क्या उस निगह-ए-नाज़ को पैवंद है तीर मुक़र्रर मगर इस की है कमाँ और
तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे ले आएंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जां और
लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन करता जो न मरता कोई दिन आहो-फुग़ां और
है और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और
मायने... गुमां : वहम/ आहो-फुग़ां : विलाप/ सुख़नवर : कवि
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