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संकट की आहट:इन दिनों क्यों बिगड़ा-बिगड़ा है मौसम का मिज़ाज?

 

बीते सप्ताह जम्मू-कश्मीर में बर्फबारी का 10 साल का रिकॉर्ड टूट गया। यह तस्वीर पुलवामा क्षेत्र की है जो मौसम के इस कहर से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है।

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का अंतिम साल यानी 2020 वैश्विक महामारी के लिए जाना जाएगा, लेकिन कम लोगों को ही जानकारी होगी कि यह पृथ्वी के इतिहास में सबसे गरम दशक (2010-2020) की समाप्ति के रूप में भी याद रखा जाएगा। और अब तो नासा की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2020 इतिहास के सबसे गर्म साल के रूप में भी दर्ज हो गया है। यह जलवायु परिवर्तन का सीधा नतीजा है जो ‘चरम मौसमी घटनाओं’ की संख्या में बढ़ोतरी के रूप में भी सामने आ रहा है। सरल भाषा में कहें तो साधारण तूफान अब चक्रवात का रूप धारण कर रहे हैं, सूखा व बाढ़ जैसी घटनाएं अब बार-बार व अधिक विकराल रूप लेती जा रही हैं और शीतलहर व भीषण गर्मी वाले मौसम अब पहले से कहीं ज्यादा और अनियमित होते जा रहे हैं। इस साल कश्मीर में रिकॉर्ड बर्फबारी, पंजाब-दिल्ली में कड़ाकेदार सर्दी और उसके विपरीत मप्र, महाराष्ट्र, गुजरात का ठंड के लिए तरस जाना इसी के उदाहरण माने जा सकते हैं।

दो गुनी हो गई चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी

भारत में 1970-2005 के अंतराल में यानी 35 सालों में चरम मौसम की 250 घटनाएं देखने को मिलीं, लेेकिन 2005 से अब तक 15 साल में करीब 310 चरम मौसमी घटनाएं हुईं। काउंसिल ऑन एनर्जी एनवॉयरनमेंट एंड वॉटर्स द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 2005 के बाद भारत के 79 जिले जहां साल-दर-साल अत्यधिक सूखाग्रस्त रहे, वहीं 24 जिले भयंकर चक्रवातों के प्रकोप में रहे। एक बदलाव यह भी आया कि भारत के कुछ जिले जो कभी सूखा ग्रस्त हुआ करते थे, अब वे भयंकर बाढ़ से ग्रस्त होते दिख रहे हैं तो कुछ जिलों में इसका ठीक उलटा हो रहा है। इस रिपोर्ट की मानें तो कुल मिलाकर भारत के 75 प्रतिशत जिले अब चरम मौसमी घटनाओं की चपेट में आ चुके हैं। वर्ष 2020 में प्रकाशित ‘वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक’ के अनुसार 2018 में चरम मौसमी घटनाओं द्वारा सबसे प्रभावित देशों की सूची में भारत 5वें स्थान पर रहा।

क्यों हो रहा है मौसम का ऐसा मिज़ाज?

इसे जलवायु परिवर्तन का परिणाम माना जा सकता है। पृथ्वी के वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता स्तर पृथ्वी पर औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि से सीधे जुड़ा हुआ है। जीवाश्म-ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला) को जलाने और खनन, बांध व अन्य बुनियादी ढांचों के विकास के लिए जंगलों के विनाश की वजह से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है जिससे पृथ्वी का वायुमंडल गरम हो रहा है। वायुमंडल में मानवजनित ‘ऐरोसॉल’ (गैस के साथ ठोस कणों या तरल बूंदों का मिश्रण) की अत्यधिक मौजूदगी की वजह से विकिरण प्रणाली पर भी असर पड़ रहा है जो जल-चक्र को प्रभावित करता है और इसी वजह से वर्षाजल में अनियमितता देखने को मिल रही है। केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार 1950-2015 के दौरान मध्य भारत में एक दिवसीय अत्यधिक वर्षा (150 मिलीमीटर से ज़्यादा) की आवृत्ति में 75% बढ़ोतरी दर्ज हुई है।

इसके क्या होंगे परिणाम?

- भारत की जलवायु में तेजी से हो रहे बदलाव से देश के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, कृषि उत्पादन और जल-संसाधनों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यह देश में खाद्यान, सिंचाई, ऊर्जा, जलापूर्ति व जैव-विविधता को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।

- चरम मौसमी घटनाएं लू, हृदय और तंत्रिका संबंधी रोगों और तनाव से संबंधित विकारों को भी जन्म देती हैं, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं की आशंका बढ़ गई है। तमाम वेक्टर जनित रोग जैसे मलेरिया, डेंगू इत्यादि के फैलने का डर भी बढ़ जाएगा।

- चरम मौसमी घटनाओं का सबसे प्रतिकूल प्रभाव समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग पर सबसे ज्यादा होगा, जिनके लिए भोजन व शुद्ध पेयजल जैसी चीजें जुटाना मुश्किल हो जाएगा। इसका असर समाज के ताने-बाने और अंतत: कानून एवं व्यवस्था पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा।

इस स्थिति से बचने के क्या हैं उपाय?

इसका एक ही उपाय है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करके वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि ये सभी कोशिशें तभी सफल हो पाएंगी, जब हम व्यावहारिक परिवर्तन ला पाएंगे और ऊर्जा के संरक्षण के साथ ऊर्जा के हानिकारक स्रोतों के विकल्पों का विकास कर पाएंगे। परंतु यह एक दीर्घकालिक रणनीति है और आने वाले दशकों में चरम मौसमी घटनाओं की संख्या में और भी बढ़ोतरी होने की आशंका है। इसलिए जरूरी है कि हम इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए अभी से तैयारियां शुरू कर दें। 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने आपदा संबंधित जोखिमों के नियंत्रण के लिए ‘सेनदाई रूपरेखा’ बनाई थी जिसमें सभी सदस्य राष्ट्रों को 2030 तक नए व मौजूद आपदाओं के जोखिम को कम करने के लिए कुछ लक्ष्य दिए गए हैं।

भारत ने इस दिशा में अब तक क्या किया?

भारत सरकार ने साल 2008 में ‘जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना’ और साल 2009 में ‘जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना’ बनाने के लिए सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिए थे। हालांकि अनेक विशेषज्ञों ने राज्य स्तरीय कार्य योजनाओं की सफलता पर सवालिया निशान खड़े किए हैं। इन योजनाओं में अन्य संबंधित विभागों की अनदेखी के साथ-साथ जिला और क्षेत्रीय स्तर पर योजनाएं बनाने में नाकामयाबी भी इसकी राह में सबसे बड़ी बाधा मानी जा रही है। आने वाले दशकों में चरम मौसमी घटनाएं बढ़ेंगी और इसलिए जरूरी है कि सरकार असर वाले संभावित क्षेत्रों की सूची बनाकर क्षेत्रीय स्तर पर कार्य योजनाएं बनाएं, क्योंकि हर क्षेत्र में वहां की जमीनी स्थिति के अनुसार अलग-अलग कार्ययोजना पर अमल करना होगा। साथ ही सभी संबंधित जिम्मेदारों को इसके प्रति जवाबदेह भी बनाना होगा।

क्या है चरम मौसम?

वर्ल्ड मीटियोरॉलोजिकल ऑर्गनाइजेशन के अनुसार चरम मौसम (एक्स्ट्रीम वेदर) उसे कहते हैं, जिसमें कोई मौसम जैसे ठंड या गर्मी अथवा बारिश अपने अतीत के रिकॉर्ड्स को तोड़ देता है या जिस क्षेत्र विशेष में जैसा मौसम होना चाहिए, वैसा न होते हुए उलटा होता है। जैसे हाल ही में कश्मीर में बर्फबारी का रिकॉर्ड टूटना इस परिभाषा में आता है। या पश्चिम भारत के कई राज्यों जैसे मप्र, गुजरात, महाराष्ट्र में आधी जनवरी बीतने के बाद भी वैसी ठंड नहीं पड़ी, जैसी हर साल अपेक्षित रहती है।

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