- आज के दौर के अधिकांश बच्चों के माता-पिता उनके मनोरंजनार्थ अपने घरों में टीवी, मोबाइल, गैजेट्स, खिलौने उपलब्ध कराते हैं। बावजूद उसके अधिकांश बच्चे पैरेंट्स से यह कहते सुने जा सकते हैं कि ‘बोर हो रहे हैं, क्या करें?’
- ये लगभग हर घर की कहानी है। ऐसे में मुझे अभावों के बीच गुज़रा अपना बचपन याद आ जाता है।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी एक कविता में कदम्ब के पेड़ पर चढ़कर उस पर खेलते बच्चे की भावनाओं का सुंदर वर्णन करते हुए लिखा है- ‘यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे, मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे’
यह कविता पढ़ते ही मुझे बचपन में मेरे घर के पास स्थित बड़ा-सा आंगन और उसमें लगा वह विशालकाय पीपल का पेड़ बरबस अपनी ओर खींचता-सा महसूस होने लगता है, जिसके चलते मैं अपने बचपन की यादों में खो जाता हूं। हालांकि इस कविता में वर्णित कदम्ब के पेड़ की तरह हमारे आंगन में लगे आसमान छूते लम्बे-घने पीपल के पेड़ पर न तो आसानी से चढ़ा जा सकता था, न ही उस पर बैठकर कन्हैया बनने की दिव्य कल्पना की जा सकती थी। बावजूद इसके वह बड़ा-सा आंगन और पीपल का पेड़ हम बच्चों के लिए किसी आश्रयस्थल से कम न था।
हमारे घर की दीवार से लगा वह आंगन और उसमें शान से खड़ा वह पीपल का पेड़ ही तो था, जहां दुनियादारी सीखते, खेलते-कूदते हमारा बचपन गुज़रा था। हमारे आंगन में मस्ती से झूमता, आसमान चूमता पेड़ लगभग किसी चार-पांच मंज़िला ऊंची इमारत जितना बड़ा था। क़रीब दस फ़ीट की गोलाई वाले अपने मज़बूत तने के सहारे अपनी लम्बी-चौड़ी शाखाओं पर लदी हरी-हरी पत्तियों से पूरे आंगन को समेटे अपनी शीतल छाया में सबको पनाह देता। पता नहीं कितने सालों से ऐसी ही तटस्थ मुद्रा में किसी तपस्या में लीन साधु की भांति वह लम्बवत खड़ा था।
दरअसल, उस समय अभावों में जीने के आदी हमारे जैसे बच्चों के लिए घर से सटा वह आंगन और पीपल का वह पेड़ हमारे खेलने-कूदने के साथ हमारे व्यक्तित्व-विकास में सहायक एक दूसरी दुनिया ही थी, जहां हम सब बच्चे दिनभर पढ़ते-लिखते, आंगन में खेलते-कूदते कब बड़े हो गए, इसका पता हमें तो क्या हमारे माता-पिता को भी नहीं चला।
हमारा अधिकांश समय उसी आंगन में व्यतीत होता था। मसलन पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करना, दोस्तों के साथ मिलकर कंचे खेलना, सरिया गड़ावनी, नदी-पहाड़, घोड़ा-बादामछाई, पकड़मपाटी, लंगड़ी, छुपम-छुपाई, चोर-पुलिस और कई-कई घंटों तक बैट-बॉल खेलना, और गर्मी की छुट्टियों में दिनभर खेलना। सुबह उठकर उस पूरे आंगन में यत्र-तत्र-सर्वत्र फैले पत्तों और अन्य कचरे को बुहारना और गाय के गोबर से पूरे आंगन को लीपना होता था। हमारी माताजी तो प्रतिदिन हल्दी-कुमकुम के साथ जल देकर उस पीपल के वृक्ष को पूजती थीं, जिसकी वजह से वहां का वातावरण बहुत पवित्रता का एहसास कराता था। वैसे भी पीपल को हमारे यहां देववृक्ष भी माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। लिहाज़ा इसके सात्विक प्रभाव से अंतःचेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। शायद यही वजह थी कि हम बच्चों के लिए पीपल का वह पेड़ और वह आंगन इतना आत्मीय बन गया था।
बहरहाल, बचपन में जिस घर में मेरा परिवार रहता था, उस कॉलोनी की यह ख़ासियत थी कि वहां रहने के मकान भले ही छोटे यानी दो या तीन कमरों के हुआ करते थे, लेकिन कॉलोनी के हर घर के तीनों तरफ़ बड़ा-सा खुला-खुला आंगन ज़रूर हुआ करता था। ऐसे खुले और विशाल आंगन में बच्चों के खेलने के लिए भरपूर जगह हुआ करती थी, साथ ही उस समय के लोग ऐसी खुली जगह में कई सारी प्रजातियों के पेड़ जैसे बड़, पीपल, नीम, आम, जाम, कटहल, बबूल, सीताफल, नींबू आदि लगा देते थे। कुछ ही वर्षों में वे सारे पेड़ बड़े हो जाते और वहां पर निवास करने वालों पर अपना सर्वस्व लुटा देते। पीपल का पेड़ भी उन्हीं में से एक था, जहां एक ओर उसकी शाखाओं और कोटरों में अनगिनत पंछियों ने अपना बसेरा बना रखा था, वहीं नीचे उसके तने के आसपास कई सारे कीट-पतंगे डेरा जमाए रहते। कौए, कबूतर, गौरेया, मैना, बुलबुल, कोयल जैसे कई सारे पंछी अपनी बोली और कोलाहल से आसपास के वातावरण को गुंजायमान रखते थे। उन पंछियों के क्रियाकलापों को देखते, उनका अनुसरण करते, साथ ही उनकी आवाज़ों की नक़ल करते, अपने देशज खेल खेलते-कूदते हुए हम सब बच्चे बड़े हुए। हमें कभी मां-पिता से यह प्रश्न पूछने की नौबत नहीं आई कि हम घर के बाहर जाकर क्या खेलें?
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