- दो विश्व युद्ध , कांगो ऑपरेशन और दो बार पाकिस्तान से युद्ध में मोर्चा संभाल चुकी है शाही फैमिली
शहर के अम्बिकापुरी एक्सटेंशन में रहते हैं बीएसएफ के रिटायर टूआईसी 76 वर्षीय रण बहादुर शाही। जैसा नाम वैसे ही कर्म। वे कई रणों में अपनी बहादुरी का लोहा मनवा चुके हैं। गैलेंट्री अवॉर्ड, वीर चक्र, पुलिस मेडल और ऐसे कई सम्मानों से सजी उनके ड्राइंग रूम की दीवार ही देशभक्ति और एक योद्धा के पास होने का अहसास कराती है। वे बड़े गर्व से कहते हैं हम तीन पीढ़ियों से देश की सेवा में हैं। मेरे परिवार के पांच सदस्यों ने विश्व की बड़ी जंग में देश का मान रखा है। सभी दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन उनकी बहादुरी की यादें आज भी मेरा सिर फख्र से ऊंचा करती हैं। शाही कहते हैं कि दादा भवन सिंह शाही ब्रिटिश आर्मी की गोरखा रेजीमेंट में थे। वे 1914-1918 के बीच जर्मनी में फर्स्ट वर्ल्ड वॉर लड़े। उन्हें ‘जंगीनाम अवॉर्ड’ (आजादी से पूर्व का वीरता पुरस्कार) मिला था। दादा के भाई देवचंद शाही गोरखा रेजीमेंट में रहते हुए 1960 में कांगो ऑपरेशन का हिस्सा रहे। उन्हें वीर चक्र मिला। दूसरी पीढ़ी में मेरे पिता कुशल सिंह शाही ने आर्मी में रहते हुए 1939 से 1945 के बीच सेकंड वर्ल्ड वॉर लड़ा। तीसरी पीढ़ी में मैं और बड़े भाई सीबी शाही ने बीएसएफ में रहते हुए 1971 की भारत-पाक लड़ाई लड़ी। मुझे 1999 में करगिल वॉर में शामिल होने का मौका मिला।
हमने मोर्चा नहीं छोड़ा और दुश्मन को खदेड़ दिया
शाही बताते हैं कि मैंने 1968 में बीएसएफ ज्वॉइन किया। पाकिस्तान से लड़ाई की घोषणा होते समय मेरी यूनिट पुंछ सेक्टर में थी। यहां 11890 फीट की ऊंचाई पर ‘खालसा 1’ पोस्ट पर मुझे तैनाती मिली। जैसे ही युद्ध के आदेश मिले, हम कूच कर गए। जवानों के हाथ में थ्री नॉट थ्री और अफसरों के पास स्टेन गन थी। जैसे ही हमने बम्प कंटूर पोस्ट पर एडवांस किया, सामने से फायरिंग शुरू हो गई। हमारे सहायक कमांडेंट नफेसिंह दलाल शहीद हो गए। अब जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। हमने मोर्चा नहीं छोड़ा और दुश्मन को खदेड़ दिया। सहायक कमांडेंट को मरणोपरांत वीर चक्र मिला। सराहनीय सेवा के लिए मुझे पुलिस मेडल मिला है।
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