कहानी - जवाहर स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए थे और वे कई-कई दिनों तक घर नहीं आते थे, इस बात से उनके पिता मोतीलाल नेहरू बहुत परेशान हो गए थे। जवाहर को एक तरह से घर से अरुचि हो गई थी।
मोतीलाल जी बहुत धनवान थे, प्रतिष्ठा भी बहुत अधिक थी, उनके घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। उनका एक ही बेटा था और वह इन सभी चीजों से अरुचि लेकर गांव-गांव भटक रहा था, आंदोलन में लगा हुआ था।
गांधी जी के जागरण आंदोलन में जवाहर कूद चुके थे। मोतीलाल जी को लगा कि इस तरह तो बेटा हाथ से चला जाएगा। जब चार-पांच दिनों तक जवाहर आनंद भवन नहीं पहुंचे तो मोतीलाल जी बीमार जैसे हो गए। आनंद भवन उनके घर का नाम था।
मोतीलाल जी थक चुके थे, वे अपने परिचित पुरुषोत्तम दास टंडन जी के पास पहुंचे और कहा, 'मुझे मेरा बेटा लौटा दीजिए। जवाहर आपका बहुत सम्मान करता है, आप समझाएंगे तो वह समझ जाएगा।'
टंडन जी ने जवाहर को समझाने की कोशिश की, लेकिन जवाहर नहीं माने। कुछ दिन बाद फिर से मोतीलाल जी टंडन जी के पास पहुंचे और कहने लगे, 'मैं आपसे भीख मांगता हूं, मेरे बेटे को लौटा दीजिए।'
इतने बड़े व्यक्ति की ये हालत देखकर टंडन जी कुछ देर के लिए खमोश हो गए और फिर बोले, 'मैंने जवाहर को समझाने की कोशिश की है, लेकिन उसका निर्णय दृढ़ है। जवाहर की बात सुनकर ही मैं आपसे ये कहना चाहता हूं कि आपका बेटा इस समय बहुत बड़ा काम कर रहा है। ये साधारण आंदोलन नहीं है। देश को आजाद कराना परमात्मा की पूजा करने जैसा ही है। आप इसे समझ नहीं पा रहे हैं। इसलिए दुखी हैं। एक काम करें, आप भी इस स्वतंत्रता संग्राम में जुट जाइए। तब आपको अनुभूति होगी कि ये अभियान क्या है? शायद आप जवाहर को समझ जाएंगे और उसके निकट आ जाएंगे, आपका दुख भी दूर हो जाएगा।'
तब लोगों ने देखा कि मोतीलाल जी ने वकालत से इस्तीफा दिया और वे भी स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए। पिता-पुत्र इस तरह से निकट भी आए और एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी थे।
सीख - समस्या को सुलझाने का टंडन जी का तरीका अनूठा था। हमें ये सीख मिलती है कि अच्छे कामों में जो लोग जुटते हैं, कभी-कभी उनके बीच भी मतभेद हो जाते हैं, लेकिन अगर हम हमारी बात सही ढंग से समझाएंगे तो अच्छी बातें किसी को भी समझ आ सकती हैं।
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