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डर पर जीत:कोई डर कितना ही बड़ा क्यों न हो, उस पर जीत पाई जा सकती है, डर की शुरुआत और उस पर जीत के चंद उपाय

 

  • डर जन्मजात है। अन्य भावनाओं की तरह यह भी स्वाभाविक है। हमारी सलामती के लिए इसका होना ज़रूरी भी है। किंतु हर चीज़ की तरह डर की भी एक हद है। उससे आगे बढ़ जाए तो वह स्वाभाविक नहीं रह जाता...बल्कि सेहत, सुरक्षा, सामाजिकता और ख़ुशी को नुक़सान पहुंचाने लगता है, और सामान्य जीवन में बाधा बन जाता है।
  • समझदारी इसी में है कि जिस डर के चलते जीवन का सुख-चैन खोने लगे, उससे छुटकारा पा लिया जाए, चाहे वह डर कितना ही बड़ा क्यों न हो! अच्छी बात यह है कि हम ऐसा कर सकते हैं।

मां! मुझे अंधेरे में डर लगता है, कहकर 10 वर्ष का शैलेश मां के आंचल में ख़ुद को छिपाने की कोशिश करता था। मां बड़े दुलार से उसे अपने से चिपका लेती पर उसे सुरक्षा अनुभव कराने के साथ-साथ साहसी और निडर बनने की नसीहत भी देती। बचपन से लेकर आज तक हम सभी किसी न किसी चीज़ से डरते आए हैं– चाहे वह कॉकरोच या छिपकली का डर हो या अंधेरे या ऊंचाई का डर। सिर्फ़ बच्चे ही नहीं बड़ों में भी अनेक प्रकार के डर निरंतर महसूस होते हैं। हमने कोरोना काल में देखा है कि डर हमारे जीवन में किस तरह शामिल हो गया। आख़िर कहां से आते हैं ये डर? इनका हमारे जीवन में क्या उपयोग है? क्या हर डर बुरा ही होता है? डर लगने से हमें क्या हानि और लाभ होते हैं? क्या डर का कोई इलाज होता है? क्या हम अपने डर पर विजय प्राप्त कर सकते हैं? यदि हां, तो कैसे?

सवाल बहुत-से हैं।

आइए डर के पहलुओं को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझते हैं और जानते हैं डर से निपटने के कुछ वैज्ञानिक और प्रमाणित उपाय।

जन्म लेते ही डर से मुलाक़ात
जब हम दुनिया में आते हैं, तब दो मुख्य भाव जीवन को आगे बढ़ाते हैं। एक भूख और दूसरा डर। कल्पना कीजिए कि तीन-साढ़े तीन किलो का शिशु अभी-अभी जन्मा है। छोटा-सा शिशु कितना नाज़ुक और असहाय है। अपनी हर ज़रूरत के लिए माता-पिता या देखभाल करने वालों पर निर्भर है। उसके बस में कुछ भी नहीं सिवाय रोने के। उसे भूख लगती है तब भी रोता है, गीला करने पर भी रोता है और पेट भरा होने पर, सूखा होने पर भी रोता है। जब मां गोद में उठा लेती है तो चुप भी हो जाता है। मां की गोद में ऐसा क्या है जिसके लिए वह रो-रोकर उसे पुकारता है? मां की गोद में उस नन्हे शिशु के लिए सुरक्षा-भाव जन्म लेते हैं। वह एक सुरक्षित स्थान (गर्भ) से एक अनजान वातावरण में ख़ुद को पाता है। इस वातावरण में उसे गर्मी, सर्दी, भूख- वे सारे एहसास हो रहे हैं, जो अंदर नहीं होते हैं। एक कठोर दुनिया उसे डराती है। मनुष्य जीना चाहता है। सुरक्षित रहना चाहता है पर इस वक़्त इस शिशु को जैसे सबकुछ एक ख़तरा प्रतीत होता है। सब भयावह और डरावना लगता है। डर के भाव से यह हमारी पहली मुलाक़ात है।

निडरता का राज़ परवरिश में है
अगर माता-पिता किसी भी कारणवश अपने बच्चों को सुरक्षित महसूस नहीं करवा पाते तो उनके कोमल मन में असुरक्षा का भाव हमेशा के लिए घर कर जाता है और वे जीवनभर इससे संघर्ष करते हैं। तो डर से निपटने की सबसे पहली सीख हमें यहीं से मिल गई।
अक्सर अभिभावक छोटी-छोटी चीज़ों पर बच्चों को डराते-धमकाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों की परवरिश का यह बहुत अच्छा तरीक़ा है, इससे बच्चे अनुशासन में रहेंगे और अच्छा काम करेंगे। पर मनोवैज्ञानिक शोध यह बताते हैं कि ऐसा करने से हम अनचाहे ही बच्चों के मन में डर पैदा करते हैं। अनुशासन के और भी आसान और उपयोगी तरीक़े हैं। बच्चों को हर हाल में संरक्षण, दुलार और सुरक्षा-भाव मिलना ही चाहिए।

डर उत्पन्न करने वाले भाव
डर को पूरी तरह दूर करने के लिए हमें एक और सिद्धांत पर ग़ौर करना होगा। डर उत्पन्न करने वाले भाव हमेशा भविष्य काल में होते हैं। ‘मैं लिफ्ट में फंस जाऊंगा’, ‘मुझे कोरोना हो जाएगा’, ‘लिफ्ट बंद हो जाएगी’, ‘मेरे परिवार को कोरोना हो जाएगा’, ‘मैं स्टेज पर जाऊंगा तो मुझसे ग़लती हो जाएगी’, ‘लोग मुझ पर हंसेंगे’… आप देख पा रहे हैं कि विभिन्न प्रकार के डरों में विचार हमेशा ‘गा, गे, गी’ में ही ख़त्म हो रहा है।
इसका सीधा मतलब यह है कि इंसान भविष्य में होने वाली अनहोनी से पूरी तरह बचना चाहता है और उसको टालने के लिए भरसक प्रयास करता है। कोरोना को टालने के लिए स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेता है, बार-बार अत्यधिक हाथ धोने लगता है, हर जगह सैनिटाइज़र का छिड़काव करता है, घर के दूसरे लोगों को भी बाहर नहीं जाने देता, उसे हर वक़्त घबराहट होती रहती है। ज़रा-सी छींक आने पर भी डर लग जाता है।
इस तरह के अस्वस्थ करने वाले डर में समझने वाली बात यह है कि ख़तरा पूरी तरह से कभी टलने वाला है ही नहीं। जीवन क्षणभंगुर, अस्थायी और परिवर्तनशील है। साथ ही मनुष्य भविष्य को कभी अपनी मुट्ठी में कर ही नहीं सकता। हम केवल सावधानी भर रख सकते हैं और इतना ही हमारे हाथ में है।
ग़ौर कीजिए, डर की स्थिति में मन एक वैचारिक त्रुटि कर रहा है। वह 5% ख़तरे को बढ़ा-चढ़ाकर 95% बता रहा है जबकि सच्चाई यह है कि अगर हम सावधानी बरत रहे हैं तो कोरोनावायरस का ख़तरा बहुत कम है। ध्यान रखने वाली दूसरी बात यह है कि इस बीमारी से 97% से भी ज़्यादा लोग पूरी तरह से स्वस्थ हो रहे हैं।

डर समस्या कब बनता है
समस्या तब आती है जब मन मामूली चीज़ को भी भयावह समझने लगता है और हममें वे सारे लक्षण आने लगते हैं जो डर के समय आते हैं। ख़तरा ना होते हुए भी ख़तरे की घंटी बज जाती है। जैसे कि मन को साधारण-सी रस्सी सांप की भांति ख़तरनाक प्रतीत हो रही है और हमारा शरीर उसको जानलेवा समझकर प्रतिक्रिया दे रहा हो। इस तरह का डर अस्वाभाविक तो है ही, साथ ही साथ अस्वस्थ करने वाला भी है।
परीक्षा का स्वाभाविक डर तैयारी में मदद करता है तो वहीं अस्वाभाविक डर के मारे दिमाग़ ही चलना बंद हो जाता है। इस तरह जहां एक ओर स्वाभाविक डर हमें लड़ने के लिए सक्षम बनाता है, वहीं दूसरी ओर अस्वाभाविक डर हमें असहाय और पंगु बना देता है।

जब मददगार होता है भय
डर का भाव हमारे अंदर जन्मजात होता है। इसका एक ख़ास उद्देश्य भी है। डर हमें ख़तरों से आगाह करता है।
हमारे मस्तिष्क में एक ख़ास तरह का, बादाम के आकार का छोटा-सा अवयव है, जिसे एमिग्डाला कहते हैं। यह आसपास के वातावरण से संकट को भांप लेता है और ख़तरे की घंटी देता है। इस घंटी के बजते ही शरीर ख़तरे से निपटने की तैयारी करने लगता है। एड्रीनल नाम की ग्रंथि से एड्रीनलिन नामक द्रव्य निकलता है जो सबसे पहले मस्तिष्क को सावधान करता है। अब हमारा मस्तिष्क परिस्थिति के असंतुलन का आकलन करने में लग जाता है। अब उसे यह निर्णय लेना है कि क्या इस ख़तरे का सामना करना ठीक होगा या फिर यहां से भाग जाना ठीक होगा। दोनों ही स्थिति में मस्तिष्क में ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है जिसके लिए अब हृदय को शरीर के दूसरे हिस्से जैसे हाथों, पैरों से ख़ून वापस मंगवाना पड़ता है। इसी वजह से डर की स्थिति में हमारे हाथ-पैर ठंडे और सुन्न पड़ जाते हैं। हृदय को तेज़ गति से ख़ून ऊपर मस्तिष्क की तरफ़ भेजना होता है इसलिए धड़कन बढ़ जाती है और हमें घबराहट महसूस होने लगती है। ऑक्सीजन पूर्ति के लिए सांस तेज़ होने होने लगती है। हमारी मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं, जिससे वो ज़रूरत पड़ने पर तुरंत भागने या सामना करने के काम आ सकें।
परीक्षा या साक्षात्कार के समय, किसी नई जगह पर जाने के समय, पहली बार हवाई यात्रा करने के समय, हम सबने इस तरह के लक्षण महसूस किए ही हैं। यह स्वाभाविक डर का शरीर क्रिया विज्ञान है। ये डर हमें कठिनाई से, विपदा से, संकट से निपटने के लिए तैयार कर रहे हैं। इसलिए ये बुरे नहीं हैं अपितु उपयोगी हैं।

डर से दो-दो हाथ करने के तरीक़े
अस्वाभाविक डर से निजात पाने के लिए हमें कभी-कभी मनोचिकित्सा की ज़रूरत भी पड़ सकती है। उससे पहले हम ख़ुद भी डर को ठीक तरह से समझकर कुछ सरल-से उपायों से अपने मन को संभाल सकते हैं।
मनोविज्ञान में इसके लिए कुछ सिद्धांत हैं। उनमें से पहला है अपने शरीर में डर की वजह से जो तनाव आ गया है उसे रिलैक्सेशन तकनीक द्वारा विश्रांति की अवस्था में लाना। इसके लिए सबसे पहले अपनी सांस पर ध्यान देना। श्वास पर ध्यान लगाएं और धीरे-धीरे शरीर की सारी मांसपेशियों को ढीला छोड़ दें। जो भी डर उत्पन्न करने वाले विचार आ रहे हैं उन्हें आने और जाने दें और बार-बार अपना ध्यान श्वास पर लाएं। इस तकनीक से फ़ौरी राहत मिलती है पर यह डर का इलाज नहीं।

सोच और सच्चाई का फ़र्क़
सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम डर उत्पन्न करने वाले विचारों की जांच करें और देखें कि ये विचार हमारी ‘सोच’ ही है या ‘सच्चाई’।
सोच भविष्य काल का वाक्य बनाती है और हमें जितना हो सके अपने आप को वर्तमान में रखने की आदत डालनी है। घबराए हुए मन को पहले विश्राम की स्थिति में लाना है। फिर अपने विचारों को देखना है। ज़रूरत पड़े तो काग़ज़ पर लिख लेना है, फिर उन्हें जांचना है। क्या यह भविष्य काल का वाक्य बन रहा है? यदि हां तो उसे वर्तमान में लिखकर या बोलकर देखिए।
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‘मैं स्टेज पर जाऊंगा तो सब भूल जाऊंगा, मुझसे ग़लती हो जाएगी और सब मुझ पर हंसेंगे’-
इस भविष्य काल के वाक्य को जब हम वर्तमान में परिवर्तित करेंगे तो होगा-
‘मैं स्टेज पर हूं, सब भूल गया हूं, मुझसे ग़लती हो रही है और लोग मुझ पर हंस रहे हैं।’
इस वर्तमान के वाक्य को 5 से 10 बार बोलिए। शुरुआत में घबराहट बढ़ेगी। पर जैसे-जैसे मन को वैचारिक त्रुटि का एहसास होगा घबराहट कम होती जाएगी और पता चल पाएगा कि ग़लती होना एक सामान्य बात है। यह जीवन, मरण की स्थिति नहीं है। इसमें ख़तरे की घंटी नाहक ही बज रही है।
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यदि आप डर के बावजूद साहस से काम लेते हैं तो पता चलेगा कि डर से जीतने का रास्ता दरअसल डर से होकर ही गुज़रता है।

लेखक परिचय

डॉ. चीनू अग्रवाल
जानी-मानी मनोवैज्ञानिक। मनोविज्ञान में पीएचडी। अमेरिका स्थित अल्बर्ट एलिस इंस्टिट्यूट से प्रशिक्षित। फ़ीलिंग माइंड्स संस्था की निदेशक। वे टेड टॉक्स जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच से भी सम्बोधित कर चुकी हैं।

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