पुराने समय में एक वैद्य जी के पास दूर-दूर से लोग अपना इलाज करवाने आते थे। वैद्य जी बहुत ही योग्य, विनम्र और बुद्धिमान थे। एक दिन उनके यहां नगर का बड़ा सेठ अपने बच्चे को लेकर पहुंचा।
सेठ का बच्चा बीमार था। वैद्य जी ने बच्चे को देखा और उसकी बीमारी दूर करने के लिए उचित दवाइयां दे दीं। सेठ ने दवाइयों की कीमत पूछी तो वैद्य जी ने 10 स्वर्ण मुद्राएं मांग लीं। वहीं एक गरीब व्यक्ति भी अपना इलाज करवाने आया हुआ था। जब उसने ये सब देखा तो उसने सोचा कि इतना धन तो मेरे पास नहीं है, ये सोचकर वह जाने लगा।
बीमार व्यक्ति को जाता देखकर वैद्य जी ने उसे रोका और जाने की वजह पूछी। बीमार गरीब ने कहा कि मेरे पास आपको देने के लिए 10 स्वर्ण मुद्राएं नहीं है, इसलिए मैं यहां से जा रहा हूं। वैद्य जी कहा कि कोई बात नहीं, जब तुम ठीक हो जाओगे तो यहां कुछ दिन मरीजों की सेवा कर देना।
ये सुनते ही सेठ गुस्सा हो गया और बोला कि आपने मेरा धन देखकर मुझसे 10 मुद्राएं मांग और इसका इलाज नि:शुल्क कर रहे हैं, ये तो गलत बात है। वैद्य जी ने कहा कि सेठ जी ऐसा नहीं है, मुझे मेरा आश्रम चलाने के लिए दो चीजों की जरूरत है धन और सेवा। जिस मरीज के पास देने के लिए जो होता है, मैं दवा के बदले उससे वही ले लेता हूं। आपके पास मुझे देने के लिए धन है तो आपसे धन ले रहा हूं। इस गरीब के धन नहीं है तो इससे सेवा करने के लिए कह रहा हूं।
ये बात सुनकर सेठ को अपनी गलती का अहसास हो गया, उसे अपनी बात का पछतावा हुआ और उसने क्षमा मांगी।
सीख - इस प्रसंग की सीख यह है कि हमें किसी व्यक्ति से कुछ भी कहने से पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए, वर्ना बाद में पछताना पड़ता है।
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