कहानी - युवा अग्रसेन करीब 15 वर्ष के थे और वे अपने पिता वल्लभ सेन जी से बहस कर रहे थे कि मैं भी आपके साथ युद्ध में चलूंगा। उस समय महाभारत युद्ध की तैयारियां हो रही थीं।
वल्लभ सेन जी ने निर्णय लिया था कि वे पांडवों के पक्ष में रहकर युद्ध लडेंगे। उन्होंने अपने पुत्र को समझाया, 'तुम अभी युवा हो, वीर और योद्धा भी हो, लेकिन ये उम्र युद्ध में जाने की नहीं है।'
अग्रसेन ने कहा, 'पिता जी, अगर योग्यता आ चुकी है और पराक्रम है तो फिर उम्र आड़े नहीं आनी चाहिए। मैं उस घर में कैसे रहूंगा, जिस घर से पिता युद्ध में चला जाए? मैं यहां करूंगा क्या? मेरी स्थिति ऐसी हो जाएगी, जैसे कोल्हू का बैल चाक के आसपास घूमता है। मुझे आपके साथ चलना है।'
पिता जी सहमत नहीं हुए तो अग्रसेन ने अपनी मां से ये बात कही। तब मां ने युद्ध में जाने की सहमति दे दी और वल्लभ सेन जी से कहा, 'वीर बालक को युद्ध में ले जाइए।'
इसके बाद अग्रसेन ने पांडवों की ओर से युद्ध लड़ा था। युद्ध के दसवें दिन उनके पिता की मृत्यु हो गई थी, लेकिन इसके बाद भी युवा अग्रसेन युद्ध लड़ते रहे। जब 18 दिन का युद्ध पूरा हुआ तो युधिष्ठिर ने उनसे कहा था, 'अग्रसेन, पिता की मृत्यु के बाद भी तुम शोक में नहीं डूबे, पूरा पराक्रम दिखाया, मैं तुमसे प्रसन्न हूं, तुमने मेरी आत्मा जीत ली है। तुम मुझे भीमसेन के समान प्रिय हो।'
नवरात्रि के प्रथम दिन अग्रसेन जी की जयंती मनाई जाती है और अग्रवाल समाज के ये पितृ पुरुष माने गए हैं।
सीख - अग्रसेन जी ने इस पूरी घटना से हमें ये संदेश दिया है कि अगर हम योग्य हैं तो उम्र बीच में नहीं आनी चाहिए। योग्य हैं तो सही अवसर आने पर अपनी योग्यता का प्रदर्शन जरूर करना चाहिए। हम लोग किसी न किसी क्षेत्र में योग्य हैं, जब भी अवसर आए तो जनहित में अपनी योग्यता का उपयोग जरूर करना चाहिए।
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