कहानी - महात्मा गांधी जी चंपारण के एक गांव में सेवा कार्य कर रहे थे। उसी समय वहां से जुलूस निकल रहा था। गांधी जी को उत्सुकता जागी कि चंपारण में कुछ तो अलग होता है, मैं भी जाकर देखूं कि यहां कैसा जुलूस निकल रहा है।
जुलूस में गांधी जी ने देखा कि एक बकरा, जिसे फूल-माला से सजा रखा था, उसे लेकर लोग जुलूस निकाल रहे हैं। ये देखकर गांधी जी चौंक गए। वे थोड़ा आगे बढ़े और जुलूस में शामिल लोगों से पूछा, 'इस बकरे को इतना सजा-धजाकर कहां ले जा रहे हो?'
लोगों ने कहा, 'इस बकरे की बलि चढ़ाएंगे। देवी को भोग लगाना है।'
गांधी जी ने पूछा, 'देवी को बकरे का ही भोग क्यों लगाना है?'
लोग बोले, 'इससे देवी प्रसन्न होंगी।'
गांधी जी ने कहा, 'अच्छा, अगर देवी की प्रसन्नता के लिए बकरा चढ़ा रहे हो तो देवी को और अधिक प्रसन्न कर लो, बकरे से अच्छा तो आदमी होता है, आदमी का भोग लगेगा तो देवी और ज्यादा प्रसन्न हो जाएंगी। अगर तुम्हें देवी को ही प्रसन्न करना है और कोई आदमी बलि के लिए नहीं मिल रहा है तो चलो मैं बलि के लिए तैयार हूं, आप लोग मेरी बलि दे दीजिए।'
जुलूस में शामिल लोग एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। किसी को कुछ समझ नहीं आया। गांधी जी बोले, 'किसी बेजुबान जानवर की बलि देने से कोई देवी-देवता प्रसन्न नहीं होते हैं। ये अधर्म है। सत्य का पालन करें, सेवा करें, तब देवता प्रसन्न होते हैं।'
लोगों ने प्रणाम किया और उनसे क्षमा मांगी। इसके बाद उस गांव में पशु बलि की परंपरा खत्म हो गई।
सीख - कभी भी मूक प्राणियों का वध न किया जाए। ये बहुत छोटी सोच है कि कोई देवी-देवता बलि से प्रसन्न होते हैं। हिंसा कैसी भी हो, बुरी ही होती है।
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