गुजरात के ख्यातनाम सामाजिक सुधारक और कवि नर्मद के जमाने में विधवा विवाह के रूप में क्रांतिकारी सुधार हुआ। रांदेर में घर के सामने स्थित सभी घरों में पकी उम्र की ब्राह्मण विधवा स्त्रियां रहती थीं। मुझे उन सभी मौसियों के नाम आज तक याद हैं। जब जीवन में कोई रस नहीं होता और निर्मल आनंद जीवन का शत्रु बन जाता है, तो उसे वैधव्य की संज्ञा दी जाती है। विधवा जीवन यानी शुष्क जीवन का दूसरा नाम। हालांकि आज जमाना बदल गया है। एक विधवा ने तो कमाल ही कर दिया। वह अतिसुंदर थी। उसका पति उससे भी अधिक शंकालु था। जब एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई, तो उसकी खूबसूरत पत्नी को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। उसने अपना नया जीवन शुरू कर दिया। उसने वैधव्य में वैविध्य की खोज कर ली।
अब मूल प्रश्न पर आते हैं। पूरी तरह से बरबाद हो चुकी, असमय ही वृद्धा होने वाली, उपेक्षा के कचरे में किसी तरह जीवन काटती विधवा, तो दूसरी तरफ अपना ही सुख तलाशने वाली बिंदास होकर मजे करने वाली स्त्री में से आप किसे पसंद करेंगे? लोग जिसे 'चरित्र' मानते हैं, वह चरित्र आखिर है क्या? यह प्रश्न सामाजिक नैतिकता का नहीं है। इस प्रश्न का वास्तविक संबंध सुखविरोधी धर्मभावना के साथ जुड़ा है। समाज शारीरिक सुख को चरित्र विरोधी घोषित करने की जल्दी में रहता है। अगर विधवा की बात करें तो वह स्त्री
क्यों अपने अकेलेपन और उपेक्षा का नरक भोगती रहे? वह स्त्री समाज द्वारा माथे पर लगाए गए कितने नॉर्म्स को स्वीकार करे? क्या वह अपने माथे पर लगाए गए 'विधवा' नाम के लेबल से पूरी तरह से मुक्त होकर जी सकती है? क्या इंसान अपनी मर्जी से जीवन नहीं जी सकता?
कई विधवाओं को 'गंगास्वरूप' बताकर उन पर अत्याचार किया जाता है। लेकिन क्या आप कभी किसी 'गंगास्वरूप' विधुर से मिले हैं? पुरुष जब विधुर होता है, तब उस पर किसी तरह का कोई स्थायी लेबल नहीं लगता। समाज नवचंडी यज्ञ को तो पवित्र मानता है, परंतु वही समाज प्रेमयज्ञ को पाप समझता है। समाज को विवाह के बिना प्रेम संबंध नहीं चाहिए, परंतु प्रेम संबंध के बिना विवाह पर उसे कोई एतराज नहीं होता। मानव जीवन की यह कैसी विडम्बना है? बदलते समय के साथ अब विधवा स्त्री के लिए नए शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए, यह शब्द 'स्वयंसिद्धा' हो सकता है।
अब विधवा स्त्री अकेलेपन के वन में रोते हुए अपना जीवन क्यों गुजारे? प्रियजनों का वियोग रुलाए, यह अलग बात है। वियोग के दु:ख का संबंध प्रेम की तीव्रता के साथ होता है। बाकी आंख से निकलने वाले आंसू तो एक आध्यात्मिक घटना है। स्वामी कृपालु ने सही कहा है- रोना भक्ति संगीत का एक उत्कृष्ट रूप है। जो रोना जानता है, वह अध्यात्म को अच्छी तरह से समझता है। अगर तुम शुद्ध मन से रो सकते हो, तो उस प्रार्थना की बराबरी कोई दूसरी प्रार्थना नहीं कर सकती। रोने में योग के सभी सिद्धांत समा जाते हैं।
हिलेरी क्लिंटन ने एक किताब लिखी है- इट टेक्स ए विलेज। अमेरिका तलाक के मामले में बहुत ही जल्दबाजी करता है। हमारा समाज विवाह को पवित्र मानता है। जिस संबंध में प्रेम का तत्व सदैव अनुपस्थित होता है और केवल परंपरा व नियमों के बंधनों को ही पवित्र मानता है, ऐसे संबंधों को अपवित्र माना जाना चाहिए। मूल बात प्रेम के क्षेत्र की है, व्यभिचार की नहीं। तलाक के समय विवाद करना अनिवार्य नहीं है। विचार-विमर्श के बाद होने वाले तलाक भी पवित्र हैं। जो समाज प्रेम को अपराध मानता है, उस समाज में अपराध से प्रेम करना पड़ता है। जब दु:ख का रथ धरती से कुछ ऊंचा चले, तब दु:ख को दर्द का दर्जा प्राप्त होता है।
0 टिप्पणियाँ