10 नवंबर को छठ पूजा पर्व है। इससे पहले आज (8 नवंबर) को नहाय-खाय है। 9 नवंबर को खरना है। 10 नवंबर को छठ पूजा पर शाम को सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। 11 नवंबर की सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देकर ये व्रत पूरा किया जाएगा। खरना के दिन छठ माता पूजन के लिए तैयारी की जाती है। पूजा के लिए जरूरी चीजें नहाय-खाय और खरना वाले दिन खरीदी जाती है।
खरना के दिन व्रत करने वाले लोग शाम को पूजा करते हैं। उस समय इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि शोर न हो, पूजा के समय शांति होनी बहुत जरूरी है। छठ पूजा के लिए भोग बनाने का काम बहुत सावधान और साफ-सफाई के साथ किया जाता है। भोग बनाने वाले भक्त नए कपड़े पहनने होते हैं। साफ-सफाई की दृष्टि से भोग वाले भक्त हाथों में अंगूठी भी नहीं पहनते हैं। नहाय खाय के बाद से व्रत करने वाले व्यक्ति को खरना की शाम भोजन ग्रहण करना होता है। इसके बाद करीब 36 घंटों का निर्जला व्रत शुरू हो जाता है।
ये हैं छठ पूजा से जुड़ी परंपराएं और नियम
- खरना में कुछ लोग बिना शकर की दूध की खीर बनाते हैं, कुछ लोग गुड़ की खीर बनाते हैं और पूड़ी के साथ खीर का भोग लगाते हैं। कुछ लोग भोग में मीठे चावल भी चढ़ाते हैं। भोग केले के पत्ते पर रखकर चढ़ाया जाता है। कुछ क्षेत्रों में पूड़ी-खीर के साथ ही पका केला भी अर्पित किया जाता है।
- खरना की शाम व्रत करने वाले लोग भोजन ग्रहण करते हैं। इसके लिए पूरे क्षेत्र में समय तय कर लिया जाता है। उस समय में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कहीं भी कोई आवाज न हो। भोजन के समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि कोई बच्चा रोए नहीं। ऐसा इसलिए किया जाता है, क्योंकि भोजन के समय अगर कोई आवाज हो जाए तो व्रत करने वाला व्यक्ति वहीं रुक जाता है और उसके बाद भोजन नहीं करता है। इसके बाद जो खाना बच जाता है, उसे परिवार के अन्य लोग प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
- इस प्रसाद को ग्रहण करने से पहले छठी माई का आशीर्वाद लिया जाता है। प्रसाद लेकर निकलते समय व्रत करने वाले से उम्र में छोटे लोग उनके पैर छूते हैं। उनका छोड़ा भोजन प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। परिवार के लोग ये खाना जरूर खाते हैं।
- भोजन के बाद थाली ऐसी जगह धोते हैं, जहां पानी पर किसी का पैर न लगे और इसका धोवन अन्य जूठन में न जाए।
- 10 नवंबर की शाम डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। इस दिन सुबह से ही नियमों में और ज्यादा सख्ती हो जाती है। शाम के समय अस्ताचलगामी यानी अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
- शाम के अर्घ्य के कारण इसे संझका अरग भी कहा जाता है। प्रसाद बनाने में इस्तेमाल होने वाली चीजें शुद्ध और सात्विक होनी चाहिए। प्रसाद बनाने में घर के जो लोग लगेंगे, वह नहाय-खाय के दिन ही नाखून भी काट लेते हैं।
- पूजा घर के लिए अलग कपड़ा रखना होता है। प्रसाद बनाने वाले लोग कमरे से निकलने के बाद ही खाना खा सकते हैं। प्रसाद बनाने का सारा इंतजाम करने के बाद ही कमरे के अंदर प्रवेश किया जाता है। अगर कुछ सामान बाहर रह जाए तो बाहर का काम करने के लिए इसी तरह साफ-सुथरा होकर किसी अन्य व्यक्ति को तैयार रहना पड़ता है।
- भोग बनाते समय कम से कम बात की जाती है। सभी शांत रहते हैं। बोलें भी तो दूसरी तरफ घूमकर ताकि प्रसाद में मुंह का गंदा न गिरे। प्रसाद बनाने वाले लोग अंगूठी पहनकर नहीं जाते है, क्योंकि उसके अंदर भी प्रसाद का हिस्सा फंसकर बाहर जूठन तक पहुंच सकता है या नीचे गिर सकता है।
- प्रसाद वाले कमरे के अंदर का काम पूरा करने के बाद हाथ वहीं बाल्टी में धो लिए जाते हैं और जो कपड़े पहने थे, वे कपड़े वहीं छोड़ दिए जाते हैं ताकि प्रसाद का हिस्सा कमरे से बाहर न आ जाए।
- ये सब काम खरना वाले दिन दोपहर तक पूरा कर लिया जाता है। इसके बाद सूप-दउरा सजाकर छठ घाट की ओर भक्त निकल जाते हैं। छठ घाट पर सूर्यास्त से कुछ देर पहले व्रती को पानी में उतरना होता है और सूर्यास्त से पहले सूप पर चढ़े प्रसाद को सूर्यदेव के सामने रखकर अर्घ्य अर्पण किया जाता है।
- शाम का अर्घ्य अर्पण करने के बाद सूप के प्रसाद को उतारकर एक तरफ रख लिया जाता है और फिर सुबह के अर्घ्य के लिए उसी सूप को साफ कर तैयार कर लिया जाता है। उसमें नया प्रसाद रखा जाता है और घाट पर सूर्योदय के समय से एक घंटे पहले पहुंचकर उसे सजा लिया जाता है। इसे भोर का अरग कहा जाता है। भोर का अर्घ्य 11 नवंबर की सुबह दिया जाएगा।
- सूर्योदय से जितना पहले व्रती पानी में उतरकर छठी मइयां की आराधना कर सकें, उतना अच्छा माना जाता है। नदी के घाट पर पूजा करने के बाद व्रती के नदी से निकलते ही लोग उनके पैर छूते हैं। उनके कपड़ों को धोकर आशीर्वाद लेते हैं। व्रती कोई भी हो, उससे प्रसाद लेकर ग्रहण किया जाता है।
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