कहानी - विश्वामित्र क्षत्रिय राजा थे, लेकिन तप-तपस्या करके ब्रह्मर्षि कहलाना चाहते थे और इसके लिए वे सदैव प्रयास करते रहते थे। ऋषि-मुनियों के समाज ने उनसे कहा कि जब तक कि वशिष्ठ मुनि आपको ब्रह्मर्षि नहीं कहेंगे तब तक आप राजसी ही कहलाएंगे।
विश्वामित्र जी को राजसी सुनना पसंद नहीं था और वशिष्ठ जी उन्हें ब्रह्मर्षि नहीं कहते थे। वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी में खींचतान चलती रहती थी। एक बार विश्वामित्र जी ने विचार किया कि आज चलें और वशिष्ठ को पराजित करके, दबाव बनाएं और हिंसा से उसके मुंह से कहलाऊं कि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि हैं।
ये विचार करके विश्वामित्र जी वशिष्ठ जी के आश्रम पहुंच गए। रात थी, लेकिन चांदनी रात थी। उस समय वशिष्ठ जी अपनी पत्नी अरुंधति जी के बैठे हुए थे और दोनों बातचीत कर रहे थे। अरुंधति जी ने कहा, 'आज वातावरण बहुत ही दिव्य है। देखिए कितनी निर्मल चांदनी है, कैसी उजली है।'
आगे की बात पूरी करते हुए वशिष्ठ जी ने कहा, 'सचमुच आज की चांदनी विश्वामित्र की तपस्या के तेज की तरह है।'
ये बात सुनने के बाद विश्वामित्र जी ने सोचा कि मैंने आक्रमण किया, इनके पुत्रों की हत्या की, सदैव इनकी निंदा की और ये मेरे तप के लेकर एकांत में पत्नी के सामने इतनी अच्छी टिप्पणी कर रहे हैं।
वशिष्ठ जी की बात सुनकर विश्वामित्र जी को बड़ी ग्लानी हुई। अपने शस्त्र छोड़े और दौड़कर वशिष्ठ जी के पैरों में गिर पड़े और प्रणाम किया। वशिष्ठ जी ने उन्हें उठाया और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र मैं आपका स्वागत करता हूं।
विश्वामित्र जी को समझ आ गया कि जब तक क्रोध, अहंकार, हिंसा, दुर्गुण नहीं छोडेंगे, तब तक कोई कैसे ब्रह्मर्षि बनेगा। वशिष्ठ ब्रह्मर्षि इसलिए हैं कि विश्वामित्र जी ने उनके प्रति इतना अपराध किया फिर भी उन्हें क्षमा कर दिया। क्षमा करना बड़े लोगों का आभूषण है।
सीख - अगर हम अहंकारी हैं तो अच्छे लोग हमारे जीवन में नहीं आ पाएंगे। हमें सदैव विनम्र होना है, क्रोध, अहंकार और बुराइयों से बचना है, आचरण अच्छा रखना है, तभी हमें अच्छे लोगों से मान-सम्मान मिलता है।
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