कहानी - राजा रहूगण अपनी पालकी में बैठकर सत्संग में जा रहे थे। चार कहार उनकी पालकी में लगे हुए थे, उस समय एक कहार बीमार हो गया। तब राजा के सैनिकों ने एक कहार को खोजने के लिए इधर-उधर देखा तो वहां उन्हें जड़भरत दिख गए।
जड़भरत एक ब्राह्मण के पुत्र थे। वे सदैव तथस्त रहते थे। एक तरह से वे सच्चे संत थे। जड़भरत का अपना कोई आग्रह नहीं था, उन्हें जो मिल जाता, वे उसे स्वीकार कर लेते थे।
सैनिकों ने उनसे कहा, 'चलो राजा की पालकी उठाओ।' जड़भरत ने मना नहीं किया और वे पालकी उठाकर चलने लगे। राजा की पालकी उठाने वाले इतने दक्ष होते थे कि जब वे पालकी उठाते तो पालकी में बैठने वाले के पेट का पानी भी नहीं हिलता था।
जड़भरत पालकी उठाकर चलने में पारंगत नहीं थे। वे कभी इधर देखते, कभी उधर देखते, कभी इधर पैर रखते, कभी उधर पैर रखते। इस वजह से पालकी हिलने लगी। राजा ने पालकी रुकवाई और नीचे उतरकर जड़भरत को डांटा। जड़भरत ने कहा, 'पालकी मैं नहीं, मेरा शरीर चला रहा है। मैं तो आत्मा हूं।'
ये गहरी बात सुनकर राजा हैरान हो गया। राजा ने पूछा, 'आप कौन हैं? कहीं वही कपिलमुनि तो नहीं हैं, जिनके यहां मैं सत्संग सुनने जा रहा हूं।'
जड़भरत ने राजा को समझाया, 'राजा आप सत्संग करने जा रहे हैं और पालकी में बैठकर जा रहे हैं। दूसरों के कंधे पर चढ़कर कभी भी सत्संग नहीं किया जा सकता है। आपके भीतर अभी भी ये भाव जिंदा है कि मैं राजा हूं। जब भी किसी सत्संग में जाएं तो अहंकार न करें। अगर आपको राजा होने का अहंकार है तो आप सत्संग से कुछ सीख नहीं पाएंगे।'
सीख - साधना और तप करना है तो दूसरों के कंधे पर न करें, खुद करें। साधु-संतों के सामने और सत्संग में अपने अहंकार को गिरा दें।
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