कहानी - अत्रि मुनि की पत्नी थीं अनसूइया। वह अपने तपस्वी स्वभाव की वजह से बहुत प्रसिद्ध थीं। एक बार उन्होंने तपस्या की और गंगा जी से कहा, 'मैं ये तप इसलिए कर रही हूं कि आप इस स्थान पर आ जाएं और यहीं निवास करें।'
गंगा जी ने कहा, 'पहले आप एक वर्ष तक शिव जी को प्रसन्न करने के लिए तप करें। आपके पति भी बहुत बड़े ऋषि हैं। आप अत्रि मुनि की भी सेवा करती हैं। तपस्या और सेवा का जो फल आपको मिलेगा, वह मुझे देना होगा।'
अनसुइया जी ने कहा, 'ठीक है, मैं ऐसा कर दूंगी, लेकिन एक बात बताएं आपने मेरी तपस्या का फल क्यों मांगा?'
गंगा जी बोलीं, 'लोग मेरे भीतर पाप धोने आते हैं, इससे मेरे भीतर पाप ही पाप हो जाते हैं, मेरे ये पाप कौन धोएगा? जब मैं किसी तपस्वी स्त्री को देखती हूं, जिसके विचार बहुत शुद्ध हैं, जो दूसरों के भले के लिए सोचती हैं, समाज कल्याण के लिए जीती हैं, ऐसी स्त्री को देखकर मेरे पाप धुल जाते हैं और वह स्त्री आप हैं।'
शिव जी इन दोनों की बातें सुन रहे थे, वे प्रकट हुए और बोले, 'जिस ढंग से अनसुइया जी ने गंगा जी को पाया है और अब गंगा जी के पाप इनके दर्शन से धुलेंगे तो मैं इनकी तपस्या से प्रसन्न हूं। अब मैं यहां स्थापित होऊंगा और इस जगह का नाम होगा अत्रिश्वर महादेव।'
सीख - इस कथा की सीख यह है कि जब हम कोई तपस्या करते हैं, अनुशासित जीवन जीते हैं तो हमारे भीतर सकारात्मकता उतर आती है। इस सकारात्मकता का उपयोग दूसरों के भले के लिए करना चाहिए। हमारी जो योग्यता है, अगर वह समाज और राष्ट्र के काम न आए तो उसका कोई लाभ नहीं है। जो लोग अपनी तपस्या और मेहनत का फल समाज सेवा में लगाते हैं, उन्हें देखकर भगवान भी प्रसन्न होते हैं।
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