कहानी - महाभारत युद्ध के पहले दिन का किस्सा है। कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। युद्ध शुरू होने ही वाला था और उस समय पांडवों के बड़े भाई युधिष्ठिर ने अपने अस्त्र-शस्त्र रथ पर रखे और नीचे उतरकर पैदल ही कौरव सेना की ओर चल दिए।
युधिष्ठिर को कौरव पक्ष की ओर जाते देखकर भीम और अर्जुन ने पूछा कि भैया आप कहां जा रहे हैं? युधिष्ठिर ने कोई जवाब नहीं दिया। सभी को ऐसा लगने लगा कि युधिष्ठिर कौरवों के सामने समर्पण करने जा रहे हैं। भीम-अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि आप देखिए कहीं भैया युद्ध से पहले ही समर्पण न कर दें।
कौरव सेना के लोग भी आपस में बात करने लगे कि धिक्कार है युधिष्ठिर पर, अभी तो युद्ध शुरू भी नहीं हुआ और ये घुटने टेक रहे हैं। कोई समझ नहीं पा रहा था कि युधिष्ठिर क्या करने वाले हैं?
श्रीकृष्ण ने मुस्कान के साथ कहा, 'मैं जानता हूं। धैर्य रखें, विचलित न हों।'
कुछ पलों के बाद युधिष्ठिर भीष्म पितामह के सामने पहुंचे और हाथ जोड़कर खड़े थे। दूर से देखने पर ऐसा लग रहा था कि युधिष्ठिर ने घुटने टेक दिए और समर्पण कर दिया है, युद्ध से पहले ही पराजय स्वीकार कर ली है, लेकिन वास्तविकता ये थी कि युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर भीष्म से कहा, 'पितामह आज्ञा दीजिए कि हम आपके विरुद्ध युद्ध कर सके।'
भीष्म ने प्रसन्न होकर कहा, 'अगर तुमने आज्ञा न मांगी होती तो मैं क्रोधित हो जाता।'
श्रीकृष्ण ने सभी को समझाया, 'शास्त्रों में लिखा है कि जब भी कोई बड़ा काम करो तो सबसे पहले बड़ों का आशीर्वाद और अनुमति लेनी चाहिए। तभी विजय होती है।'
भीष्म के बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास पहुंचे और उन्हें प्रणाम करके युद्ध करने की अनुमित मांगी। द्रोणाचार्य ने कहा, 'मैं बहुत प्रसन्न हूं और मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारी जय हो।'
सीख - इस किस्से की सीख यह है कि दृश्य के अंदर भी एक दृश्य होता है। बाहरी दृश्य देखकर सभी को लगा था कि युधिष्ठिर क्षमा मांगकर समर्पण कर रहे हैं, पराजय स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन दृश्य के भीतर का दृश्च श्रीकृष्ण ने देखा। हमें भी श्रीकृष्ण की तरह ही दूरदृष्टि रखनी चाहिए, जो सामने दिखता है, वही सच है, ये जरूरी नहीं है। कभी-कभी सामने दिख रही बातें जो दिख रही हैं, उससे अलग भी हो सकती हैं।
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