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जब तकलीफ मिले तो हमें इस विवेक से काम लेना चाहिए कि प्रतिक्रिया उस पर ऐसी ना हो जो किसी दूसरे का दुःख बढ़ाए

महाभारत का युद्ध खत्म हो चुका था। कौरवों की सेना में महज तीन लोग कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा ही बचे थे। पांडवों की सेना में दो हजार हाथी, पांच हजार रथ, सात हजार घुड़सवार और 10 हजार पैदल सैनिक बचे थे।

दुर्योधन मरणासन्न स्थिति में था और कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा तीनों ही उसके आसपास थे। दुर्योधन ने दुःखी होकर कहा कि हमारी सारी सेना समाप्त हो गई लेकिन हम एक भी पांडव को मार नहीं पाए। इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है।

अश्वत्थामा ने उसकी बात सुनी और निर्णय लिया कि वो पांडवों को मारेगा। वो रात के अंधेरे में पांडवों के शिविर में पहुंचा और द्रोपदी से जन्में पांडवों के पांच पुत्रों को मार दिया। अपने बेटों की मौत देख द्रोपदी काफी दुःखी हो गई। उसका दुःख देखकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि वो अश्वत्थामा को पकड़ कर लाएगा और उसे सजा देगा।

दोनों में भारी युद्ध हुआ और अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ लिया। उसे द्रोपदी के सामने लाया गया। अर्जुन ने द्रोपदी से कहा - पांचाली इसको क्या सजा देनी चाहिए, ये तुम तय करो।

द्रोपदी ने अश्वत्थामा को देखा तो उसे याद आया कि ये गुरु द्रोण का पुत्र है। गुरु पुत्र का वध नहीं कर सकते। द्रोपदी ने कहा कि अगर इसको मौत की सजा दी तो इसकी मौत का दुःख गुरु माता को होगा। इसे कुछ और दंड देना चाहिए। मारना नहीं चाहिए।

द्रोपदी के इस निर्णय से सारे लोग आश्चर्यचकित थे। लेकिन, कृष्ण ने इस फैसले की मन ही मन काफी सराहना की।

सबकः द्रोपदी का फैसला ये समझाता है कि अगर हम पर कोई दुःख या पीड़ा आए तो उसे धैर्य के साथ सहन करना चाहिए। दुःख की घड़ी में भी हमसे कोई ऐसा निर्णय ना हो जो किसी और के लिए दुःख का कारण बन जाए।

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