पता नहीं पार्वती को कैसे हर किसी को माफ करना, छोटी-छोटी बातों पर ध्यान न देना, अपनी कटु आलोचना पर भी सहज रहना, ईश्वर की नियति को सहर्ष स्वीकार करना आता था। पार्वती को विवाह के पश्चात अनेक परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाना पड़ा। पति की संकीर्ण सोच, सास का तुनकमिजाज रवैय्या, ससुर की कठोर वाणी से भी पार्वती के चेहरे से मुस्कान कम नहीं हुई। परिस्थितियों के अनुकूल बनना ही अनेक समस्याओं का समाधान है। यह बात पार्वती ने आत्मसात कर रखी थी।
एक बार अकस्मात उसकी अपनी घनिष्ट मित्र वैष्णवी से मुलाक़ात हुई। दोनों ने अपने मन की सारी बातें की, तभी वैष्णवी ने प्रश्न किया की तुमने इतनी सहजता से स्वीकार करना कैसे सीखा। तब पार्वती ने कहा की दादाजी का यह गुण मैंने व्यावहारिक जीवन में देखा। माँ हमेशा बताया करती थी कि जब वह बहू बनके घर में आई, तब दादाजी ने कभी उन्हें बंधन, रीति-रिवाज और परम्पराओं में जकड़ने को बाध्य नहीं किया, सब कुछ समय और परिस्थितियों के अनुरूप, स्वेच्छा से अपनाने पर बल दिया। माँ की हर गलती पर दादाजी ने बड़प्पन का स्वभाव ही दिखाया। छोटों की गलती को माफ करना और हमेशा सहज रहना यह उनकी विशेषता थी। हर कार्य में सहयोग को तत्पर रहना, धनिया भी साफ कर देना और बिजली का बिल भी भर देना, कुछ भी उन्हें अप्रिय नहीं था। बेटे का पत्नी को सम्मान देना, आगे बढ़ाना, नया परिवेश, रहन-सहन के नए तौर-तरीके इन सब में कहीं भी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं था। जब हम गाँव में रहकर शिक्षा के प्रति अरुचि लेने लगे तो शहर प्रस्थान को प्रेरित किया। खुद सदैव समझाते और हमें कहते तुम लोगों का आगे पूरा जीवन है, हमने अपना जीवन जी लिया है, तुम्हें अभी बहुत आगे बढ़ना है। बस वैष्णवी दादाजी ने बड़प्पन की परम्परा मुझे सीखा दी।इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है कि यदि घर के बड़े हर परिस्थिति में उदार दिल वाला स्वभाव रखेंगे, तो छोटों के लिए इस प्रायोगिक ज्ञान को व्यावहारिक बनाने में कहीं कोई परेशानी नहीं होगी। बड़प्पन की परम्परा के लिए बुजुर्गो को भी दो कदम बढ़ाने होंगे। बड़प्पन की परम्परा से बहुत से बड़ी-बड़ी बातों को छोटा स्वरूप दिया जा सकता है।
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