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कुसंगति कभी न करें, वर्ना नुकसान होना तय है

कहानी श्रीराम राजा बनने वाले थे तो अयोध्या में सभी लोग बहुत खुश थे। पूरा नगर सजा हुआ था। श्रीराम के सभी बालसखा समूह में राजमहल पहुंचे। सभी मित्र श्रीराम से कहते हैं, 'मित्र, अब तुम राजा बनने वाले हो, हम तुम्हारे मित्र हैं तो अब से हम राजमित्र के रूप में जाने जाएंगे।'

श्रीराम उन सभी मित्रों से बड़ी विनम्रता से बात करते हैं, उनका अभिवादन करते हैं, धन्यवाद देते हैं। श्रीराम के व्यवहार की तारीफ करते हुए सभी मित्र वहां से चले जाते हैं।

सभी मित्र चर्चा कर रहे थे इतना विनम्र और इतना स्नेह निभाने वाला और कौन होगा? राम ही हैं। कुछ लोग कह रहे थे कि ईश्वर हमें जनम-जनम तक अयोध्या में ही जन्म दें। यहीं रहें श्रीराम के साथ।

उस समय देवी सरस्वती वहां पहुंचती हैं और सोचती हैं कि मैंने अयोध्या में एक दासी की बुद्धि फेरी है तो देखूं तो सही अब क्या दृश्य है। पूरा नगर तो आनंद मना रहा था, लेकिन कैकयी महल में काले कपड़े पहनकर बैठी हुई है। उसके मन में जलन की भावना थी। उसके दिमाग में मंथरा के सिखाए हुए शब्द घूम रहे थे।

सरस्वती जी ने महसूस किया कि पूरी अयोध्या में सकारात्मकता और आनंद है और कैकयी के महल में नकारात्मकता ही नकारात्मकता है। कैकयी मंथरा से संचालित हो गई थी।

देवी सरस्वती ने सोचा कि कैकयी का बेटा भरत है और भरत जैसे संत की मां भी कुसंगति कर जाए तो जीवन नष्ट हो जाता है। अयोध्या में ऐसा ही हुआ था। कैकयी ने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे और राम राज्य चौदह वर्ष आगे खिसक गया।

सीख - कुसंगति कभी न करें। गलत लोगों के मत के अनुसार चलने से हमारी चतुराई खत्म हो जाती है।

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