कहानी - एक दिन सभी ऋषि-मुनियों में इस बात को लेकर बहस हुई थी कि परब्रह्म हैं भी या नहीं? कौन है जो इस सृष्टि को चलाता है? अगर कोई है तो उसका रूप कैसा है? उसकी पहचान होनी चाहिए। जब इस बहस का कोई परिणाम नहीं निकला तो सभी ऋषि-मुनि ब्रह्मा जी के पास पहुंचे।
मेरू शिखर पर ब्रह्मा जी का निवास था। सभी ऋषि-मुनि विशाल भवन में ब्रह्मा जी के सामने पहुंचे थे। ब्रह्मा जी ने ऋषि-मुनियों से पूछा, 'आप सभी एक साथ यहां किस उद्देश्य से आए हैं?'
ऋषि-मुनियों ने कहा, 'हम सभी अज्ञान के अंधकार में डूब गए हैं। परमतत्व की जानकारी पाना चाहते हैं।'
ब्रह्मा जी ने आंखें बंद करके रुद्र बोला और इसके बाद तुरंत ही बोले, 'अगर आप इन प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं तो मैंने एक व्यवस्था की है। मैंने एक चक्र फेंका था, जहां वह गिरा, वहां चक्र की नेमि के कारण एक वन बन गया है। उसे नैमिषारण्य यानी नैमिष वन कहा गया है। आप सभी वहां जाएं, वहां यज्ञ करना। तब वायुदेव वहां आएंगे, आप वायुदेव से ये प्रश्न पूछना और वे आपकी शंकाओं का समाधान करेंगे।'
ब्रह्मा जी ने ऋषि-मुनियों को जैसा बताया, उन्होंने वैसा ही किया। वायुदेव से ऋषियों की चर्चा होती है तो उनको अपनी शंकाओं का उत्तर मिल जाता है।
सीख - इस किस्से में ऋषि मुनियों को उत्तर तो ब्रह्मा जी भी दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऋषियों से कहा कि पहले यज्ञ करना और वायुदेव से प्रश्न पूछना, वे तुम्हें समझाएंगे। इसके लिए ब्रह्मा जी ने नैमिषारण्य वन का चयन भी किया। इस किस्से की सीख यह है कि अगर कोई हमारे पास जीवन से संबंधित गंभीर प्रश्न लेकर आए तो सबसे पहले हमें उसके लिए भूमिका तैयार करनी चाहिए। गहरी बातों के स्थान अलग ही होते हैं। राजसभा में बैठकर धर्म-आध्यात्म की चर्चा नहीं की जा सकती है। ऐसी बातों के लिए वन श्रेष्ठ होते हैं। यज्ञ का अर्थ होता है, एक धार्मिक अनुशासन, जिससे वातावरण शुद्ध होता है। वायुदेव ऋषियों से बहुत अधिक जुड़े हुए हैं, इसलिए वे बहुत अच्छे से समझा सकते हैं। वक्ता और श्रोता के बीच तालमेल अच्छा होगा तो हर प्रश्न का सही उत्तर मिल सकता है।
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