खजुराहो नृत्य महोत्सव का दूसरा दिन रहा ओडिसी, कथक, भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी नृत्य के नाम
नृत्यों में जीवन का आनंद है और सार भी। जब कोई कलाकार नृत्यरत होता है तो वह किसी न किसी रूप में विचार, वातावरण, अध्ययन और अहसास को अपने नृत्य में समाहित करता है। नृत्य- मुद्राओं और भाव भंगिमाओं के जरिये कलाकार के मन की बात दर्शकों तक संप्रेषित हो जाती है। नृत्य की भाषा का ये जादू 48वें खजुराहो नृत्य समारोह के दूसरे दिन ओडिसी, कथक, भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी नृत्य के रूप में देखने को मिला।
शाम की पहली प्रस्तुति देश की जानी मानी ओडिसी नृत्यांगना भुवनेश्वर की सुजाता महापात्रा के हृदयग्राही ओडिसी नृत्य से दी। इसके बाद बैंगलोर की नृत्य जोड़ी निरुपमा - राजेन्द्र ने भरतनाट्यम और कथक की जुगलबंदी पर आधारित नृत्य रचना समागम की ओजपूर्ण प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का समापन पद्मश्री जयरामाराव एवं उनके साथियों के कुचिपुड़ी नृत्य से हुआ।
विश्व विख्यात ओडिसी नर्तक पंडित केलुचरण महापात्रा की बहू और शिष्या सुजाता ने अपनी नृत्य प्रस्तुतियों से संस्कृति के ऐसे रंग भरे कि रसिक दर्शक मुग्ध हो गए। उन्होंने अपने नृत्य की शुरुआत पारंपरिक मंगलाचरण से की। इसमें उन्होंने प्रथम पूज्य गणेश जी की वंदना की। इसके बाद आदि शंकराचार्य कृत अर्धनारीश्वर पर मनोहारी नृत्य की प्रस्तुति दी। रागमाला के विभिन्न रागों और विविध तालों में सजी इस प्रस्तुति में सुजाता जी ने शिव और पार्वती दोनों का ही भावपूर्ण अभिनय किया। संस्कृत की इस पोएट्री में शिव और पार्वती के मंगलकारी स्वरूप का वर्णन है। सुजाता जी ने इसे भावों में पिरोते हुए बड़े ही सम्मोहक तरीके से पेश किया। इस प्रस्तुति में उन्होंने अंग-प्रत्यंग-उपांग के अनेक चलन को स्वर-लय-ताल के आवर्तनों के साथ पेश किया। ये नृत्य रचना उनके गुरु पंडित केलुचरण महापात्रा की थी। संगीत रचना पंडित भुवनेश्वर मिश्रा की थी।
अगली प्रस्तुति में उन्होंने 18 वीं सदी के कवि सलाबेग की उड़िया काव्य रचना "आहे नीला सैला" पर शानदार प्रस्तुति दी।आहे नीला सैला सलाबेग की रचना है, जो भगवान जगन्नाथ (भगवान विष्णु/ कृष्ण का रूप) का एक मुस्लिम भक्त है। वह अपनी दुर्दशा का वर्णन करता है। उसके पिता एक मुस्लिम पिता और माँ एक हिंदू ब्राह्मण है। सलाबेग को मंदिर में प्रवेश करने से मना किया गया है। उसे मंदिर के मैदान और दूर से ही प्रतिष्ठित देवता की कल्पना और प्रार्थना करनी पड़ती है। वह कुष्ठ से पीड़ित है और भगवान जगन्नाथ से दर्द और पीड़ा से बचाने के लिए प्रार्थना करता है जैसे उन्होंने (विष्णु / कृष्ण) ने पांडव राजाओं की पत्नी द्रौपदी को उनके दुष्ट चचेरे भाई, कौरवों से बचाया था; और जैसे ही उसने प्रहलाद को उसके दुष्ट पिता हिरण्यकश्यप से बचाया। इनकी नृत्य रचना भी केलुचरण महापात्रा की थी। संगीत संयोजन पंडित भुवनेश्वर मिश्रा का था। राग- आरवी, ताल जती में आबद्ध इस रचना को भी सुजाता ने बड़ी सहजता से पेश किया। अभिनय में विभिन्न मुद्राओं, मुख और आंखों से करुणा, रौद्र भावों की अभिव्यक्ति देखने लायक थी। इस प्रस्तुति में अभिनय की परिपक्वता और अनुभव की बानगी सहज ही दिखी। प्रस्तुति में वायलिन पर रमेशचंद्र दास, मरदल पर एकलव्य मुदुली, बाँसुरी पर रुद्रप्रसाद एवं गायन पर राजेश कुमार लेंका ने साथ दिया।
दूसरी प्रस्तुति के रूप में बैंगलोर की नृत्य जोड़ी निरुपमा - राजेन्द्र ने भरतनाट्यम और कथक की जुगलबंदी पर आधारित नृत्य रचना समागम की ओजपूर्ण प्रस्तुति दी। दो अलग-अलग शैलियों के नृत्यों की एक साथ प्रस्तुति बेहद मुश्किल काम है, लेकिन इस नृत्य-दंपति ने इसे जिस सहजता से निभाया, वह काबिले-तारीफ है। इस प्रस्तुति में हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत का जो सौंदर्य देखने को मिला वह अद्भुत रहा। हिंदुस्तानी संगीत के राग मालकौंस और कर्नाटक के राग हिंडोल के सुरों में पगी और आदिताल में निबद्ध रचना "हरिहर" में दोनों नर्तकों ने वैष्णव और शैव को एक बताने की कोशिश की। अगली प्रस्तुति -"विमान यान" कालिदास के रघुवंशम से थी। रागमालिका आदिताल और तीन-ताल के पदविन्यास से सजी इस रचना में कथक और भरतनाट्यम का उदात्त रूप देखने को मिला। इस प्रस्तुति में राजेंद्र ने राम और निरुपमा ने सीता का अभिनय किया। यह लंका जीतने के बाद राम सीता के पुष्पक विमान से अयोध्या लौटने की कथा है। इसमें श्रृंगार की जो भावभूमि है, उसे दोनों नर्तको ने बड़े सलीके से पेश किया।
कार्यक्रम का समापन पद्मश्री जयरामाराव एवं उनके साथियों के कुचिपुड़ी नृत्य से हुआ। नृत्य की शुरूआत गणेश वंदना से हुई। राग मोहन और आदिताल से सजी इस प्रस्तुति में ग्रुप की संजना नायर, विदुषी बालकृष्णन, वैष्णवी, रेशमा, संगीता, तान्या टी रेड्डी लक्ष्मी आदि ने कई भावों से गणेश को प्रदर्शित किया। अगली प्रस्तुति हिरण्यकश्यप संहार की थी। जिसमे जयराम राव ने एकल नृत्य की प्रस्तुति दी। मिस्र चाप और आदिताल में निबद्ध तेलगु रचना पर आधारित इस प्रस्तुति में जयराम राव ने बेहतरीन भावाभिव्यक्ति से रसिकों को विभोर कर दिया। आखिरी प्रस्तुति में ग्रुप के कलाकारों ने तिल्लाना की प्रस्तुति दी। इसमें कुचिपुड़ी के कई रंग निखर कर आए। अंग-संचालन के साथ पद- संचालन, आँखों की मुद्राएं, हस्तक के साथ पैरों की चाल, सब कुछ उदात्त रूप में सामने आया। आठ लोगों की सामूहिक प्रस्तुति में कुचिपुड़ी नृत्य की तमाम खूबियां दर्शकों को भा गई। इसके साथ ही स्वरपल्लवी में टी रेड्डी लक्ष्मी और साथी नृत्यांगनाओं ने सरगम पर आदिताल को सलीके से पेश किया। पैरों में पीतल की प्लेट फंसा कर संतुलन के साथ दी गई इस प्रस्तुति में सभी नर्तकों ने अपने कौशल का परिचय दिया। इस प्रस्तुति में गायन पर सतीश वेंकटेश, मृदंग पर तंजावुर केशवन, बाँसुरी पर रजत प्रसन्ना, एवं वायलिन पर राघवेंद्र प्रसाद ने साथ दिया।
कंदरिया और जगदम्बी मंदिरों की आभा के बीच बनाये गए भव्य मंच पर देश के जाने-माने नर्तक और नर्तकियों ने अदभुत नृत्य प्रस्तुतियां दीं। ऐसी अदभुत कि नृत्य की भाषा दर्शकों के दिलो-दिमाग में गहरे तक संप्रेषित होती चली गई। इससे उपजे आनंद को बयां नहीं किया जा सकता।
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