नैनागिरि-रेशंदीगिरि में उत्खनन में अनेक प्राचीन प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं। येे अब तक प्रकाश में नहीं आ पाने से प्रतिमा-विज्ञानियों की दृष्टि इस ओर नहीं पड़ी है अन्यथा यहाँ लगभग पैतीस प्राचीन प्रतिमाएँ जैन शिल्पकला के अब तक के अज्ञात प्रतिमानों को प्रस्थापित करने में समर्थ हैं। नैनागिरि में पार्श्वनाथ और उनकी माता का समान आसन पर शिल्पन अद्भुत है, जिसे हमने अलग आलेख में विश्लेषित किया है। इन प्राचीन प्रतिमाओं की श्रृंखला में एक यक्ष-यक्षिणी या तीर्थंकर-माता-पिता की प्रतिमा प्राप्त हुई है। प्रथम इसका परिचय देते हैं, उपरांत उभय-दृष्टियों से विश्लेषण करेंगे। अभी इन्हें हम यक्ष-यक्षी ही संबोधित करेंगे।
प्राचीन गोमेध-अंबिका की स्वतंत्र प्रतिमा प्राप्त होना इस कथन की अनुसंशा करता है कि रेशंदीगिरि-नैनागिरि का बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ से संबंध है, क्योंकि गोमेध-अंबिका तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष-यक्षिणी हैं। तीर्थंकर नेमिनाथ की अन्य प्राचीन सपरिकर प्रतिमाएँ भी यहां से उत्खनन में प्राप्त हुईं हैं।
97 से.मी. उत्सेध और 64 सेमी. चौड़े देशी भूरे पाषाण-फलक पर उत्कीर्ण यह प्रतिमा माता-पिता या यक्ष-यक्षी के स्वतंत्र प्रतिमांकन और कला की दृष्टि से बहुत महत्व रखती है। दोनों द्विभुज हैं, जबकि अम्बिका के दो-चार-छः और आठ हाथ भी वर्णित हैं और अन्यत्र शिल्पांकन में भी पाये जाते हैं। प्राचीन होने से प्रतिमा का क्षरण हो चुका है फिर भी इसके अंकन में प्रयुक्त कला को स्पष्ट देखा जा सकता है। यक्ष-यक्षी ललितासन मुद्रा में आसीन हैं। दोनों अलंकारों से अलंकृत हैं। युगल अंकन के नियमें के अनुकूल यक्षी की अपेक्षा यक्ष का किरीट-मुकुट कुछ बडा है। दोनों के कानों में पत्र-कुण्डल दर्शाये गये हैं।
बाईसवें तीर्थंकर के यक्ष का नाम गोमेध है, जिसे कहीं-कहीं गोमेद भी कहा गया है। द्विभुज होने से दाहिने हाथ में फल और बायां हाथ भंग है। फल, चक्र दोनों का निर्देश गोमेध के लिए किया गया है। यह यदि चतुर्भुज या षटभुज होता तो फल, चक्र, के अतिरिक्त वज्र, वरदमुद्रा, कुठार, दंड, शक्ति आयुध भी इंस यक्ष के वर्णित हैं। बांई भुजा टूटी होने पर भी उसका कुछ अंश नीचे जंघा पर अवलंबित होने का निशान है। इस हाथ में क्या धारण किये हुए था, टूटा होने से यह ज्ञात नहीं होता। यक्षी के जूड़ा में बंधी बेणी का एक सपत्र पुष्प दोनों के सिर के बीच इस तरह शिल्पित है मानो चक्र हो। यह यक्ष और यक्षी के मध्य दोनों का प्र्रतिनिधित्व करता हुआ अंकित है।
यक्ष को दोहरा गलहार, भुजबंध, कड़ा, यज्ञोपवीत आदि से अंकृत किया गया है। अधोवस्त्र, कटिबंध, पैजनिया भी दर्शनीय हैं।
यक्षी ललितासन में होने पर भी भंगिमा युक्त है। इसका दाहिना हाथ दायीं जंघा पर है, उसमें संभवतः फल धारण किये हुए है जो टूट जाने से स्पष्ट नहीं है, बाएं हाथ से एक शिशु को संभाले हुए है, जो उसकी बायीं जंघा पर बैठा है। यक्षी अंम्बिका को ‘पुत्रेण उपास्यमाना’ और ‘सुतोत्संगा’ कहा गया है। यक्ष की अपेक्षा यक्षी के अलंकरणों में कुचहार, कटिमेखला आदि अतिरिक्त अलंकृत हैं। इसके पैर में पैजनियां नहीं है।
ऊपर दोनों आकृतियों के बीच में से एक वृक्ष दर्शाया गया है। वृक्ष के लुम्बक, डाल-पत्र-गुच्छक दोनों तरफ घुमावदार सर्प-फणावली की तरह ़ित्र-स्तरीय अलंकृत किया गया है। जो अन्य दृष्टि से वृक्ष की वल्लरियाँ हैं। वृक्ष के बीच में उपरिम भाग में पद्मासनस्थ तीर्थंकर निर्मित है। तीर्थंकर की पादपीठ, प्रभावन और त्रिछत्र स्पष्ट है। इनकी की पादपीठ जैसे एक देव अधर उठाये हुए शिल्पांकित है। यह अंकन अन्यत्र दुर्लभ है।,
इस प्रतिमा युगल का पादपीठ भी अनुपम है। इस युगल के ललितासन में बैठे होने से दायां दायां पैर लंबित है। इसका का पादपीठ विशिष्ट है। बीच में डण्डी में लगा हुआ चक्र या अविकसित पद्म जैसा चिह्न है। इसके दोनों ओर नाल-कुण्डलीयुक्त अविकसित पद्म जैसी आकृतियां हैं, इन अविकसित पुष्पनालों के अभिमुख अंजलिबद्ध एक-एक सेविका बैठी है। युगल के लंबित दक्षिण-दक्षिण पैर पादपीठ में दर्शाये अविकसित कुण्डलित पुष्प और सेविका के ऊपर हैं।
इस पादपीठ में यक्षिणी के नीचे का अंकन विशेष और दर्शनीय है। यक्षी के दक्षिण पाद के नीचे की सेविका के पीछे और सबसे नीचे समानांतर दो आकृतियां हैं। ललितासन में एक यक्ष आकृति है, जिसका मुख पश्वाकृति के समान है। जिस तरह गोमुख यक्ष को अंकित किया जाता है। उसके पीछे भी एक स्त्री-आकृति है। गोमुख जैसे यक्ष के ऊपर एक लघु मनुष्याकृति है। उसके बाद अर्थात् यक्षी की बायीं टांख-जंघा के नीचे और नीचे की स्त्री-आकृति के ऊपर उन सभी से बड़ी एक मानवाकृति है। यही स्थिति यक्ष के नीचे के पादपीठ की है। अन्तर केवल इतना है कि यक्षी के नीचे पादपीठ में जो लघु यक्ष प्रदर्शित है उसका मुख पशु-मुख है, शेष मानवाकृति है और नायक यक्ष के पादपीठ की ओर के यक्ष की मानव या देवाकृति है। यहां नायक यक्ष के पादपीठ की ओर केवल तीन ही आकृतियां हैं, जबकि यक्षी की ओर पाँच आकृतियां प्रदर्शित हैं।
सैरोन में गोमेध-अम्बिका की ऐसी मूर्ति है जिसमें अम्बिका के समान गोमेध यक्ष की गोद-बायीं जंघा पर बालक बैठा है। काकंदी में प्राप्त स्वतंत्र अंबिका की बायी जंघा पर बालक बैठा है और दाहिनी ओर बालक नीचे खड़ा शिल्पित है जो अंबिका के द्वारा दाहिने कर में लिये हुए आम्रगुच्छक के आम्र को पकड़े हुए प्रदर्शित है।
विश्लेषण-
स्त्री प्रतिमा की गोद या पार्श्व में शिशु को ही दर्शाया गया है- एक बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की यंक्षी अंम्बिका और दूसरे भगवान की माता के साथ। इसलिए इनका ही विश्लेषण करते हैं।
प्रतिमा विज्ञान में उद्धृत विभिन्न ग्रन्थों के अनुसार तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष का त्रिमुख या एकमुख सामान्य होता है, इसे पुष्पक वाहक या नृवाहक बताया गया है। इसके आयुध- चक्र, अक्षसू़त्र, यष्टि, फल, बज्र, वरदहस्त, द्रुघण (मुदगर), कुठार और दण्ड बताये हैं। अर्थात् इनमें से कुछ या अधिक भुजाएं होने पर ये सभी धारण कर सकता है। अम्बिका यक्षी द्विभुजा से विंशति भुजा तक निरूपित की गई है। इसके साथ आम्रवृक्ष, आम्रलुम्ब, आम्रफल और एक या दो शिशु अंकित किया जाना इसकी विशेषता है। अम्बिका का वाहन सिंह है। इसके आयुध हैं- वरद मुद्रा, शिशु को सम्हाले, आम्रलुम्बि पकड़े, पास, चक्र, अंकुश, शंख, धनुष, परशु, तोमर, तलवार और कौक्षेय निरूपित किये गये हैं।
प्रस्तुत प्रतिमांकन में स्त्री प्रतिमा की गोद में बायीं तरफ शिशु बैठा प्रदर्शित है, इस कारण यह अंबिका हो सकती है। वृक्ष भी आम्र जैसा है। दोनों का वाहन नर प्रतीत होता है। यक्ष का वाहन नर कहा गया है। इन लक्षणों से यह शिलाफलक गोमेध यक्ष और अम्बिका यक्षी शिल्पांकन का कहा जा सकता है।
तीर्थंकर के माता-पिता की संभावना-
तीर्थंकर के माता-पिता की गणना त्रिषष्ठिशलाकापुरुषों में होती है और अनंतर उनका सिद्ध होना भी निश्चित होता है। ग्रन्थों में जिनों की माताओं की उपासना से संबंधित उल्लेख पिता की तुलना में अधिक हैं। जिनों की माताओं के शिल्पांकन अधिक हैं, किन्तु माता-पिता के भी अनेक शिल्पांकन उपलब्ध हैं। पाटण, आबू, कुम्भरिया, देवगढ़, खजुराहो में तीर्थंकर के माता-पिता की प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। इनमें प्रत्येक स्त्री आकृति की गोद में एक बालक अवस्थित है। 24 तीर्थंकरों के माता-पिता के सामूहिक चित्रण के प्रारंभिक उदाहरण कुम्हारिया के शांतिनाथ एवं महावीर मंदिरों में उत्कीर्ण हैं। इनमें आकृतियों के नीचे उनके नाम भी अल्लिखित हैं।
इस युगल प्रतिमांकन की स्त्री प्रतिमा की गोद में बालक का अंकन तीर्थंकर-माता जैसी भी प्रतीत होती है। वृक्ष तो है, किन्तु इसमें आम्रलुम्बी या आम्रगुच्छक नहीं है, यह अशोक वृक्ष भी संभाव्य है क्योंकि पल्लव दोनें के समान अंकित किये जाते हैं। तीर्थंकर के माता-पिता का अंकन अन्यत्र ललितासन में ही किया गया है। वह नैनागिरि की प्रतिमा में भी है। संयुक्त आसन में भी स्त्री के पादमूल में उपरिवर्णितं पांच सेवक-सेविकाएं और उनमें से एक पश्वाकृति यक्ष का होना उसे जिन-माता द्योतित करता है। पाकविररा-पुरुलिया (प.बं.) से ईसा की नौवीं शती की एक तीर्थंकर के माता-पिता की प्रतिमा प्राप्त हुई है। वह प्रतिमा भी इसी प्रतिमा की तरह है। केवल पिता का हाथ वरद मुद्रा में है। नैनागिरि की प्रतिमा की भांति वृक्ष-पल्लवाटोप अलंकृत है। अंतर इतना है कि पाकविररा की प्रतिमा के वृक्ष की एक-एक डाल प्रदर्शित है और नैनागिरि की प्रतिमा पर वृक्ष कर लगभग तीन-तीन डालियों का आटोपालंकरण किया गया है। आभूषणों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। खजुराहो में प्राप्त माता-पिता की मूर्ति की माता की गोद में जिस तरह का खड़ा हुआ बालक है, ठीक उसी तरह का बालक पाकविररा की प्रतिमा में आमूर्तित है। खजुराहो की प्रतिमा के माता-पिता के दाहिने हाथ में जिस तरह का श्रीफल या मातुलिंग है, नैनागिरि की प्रतिमा में भी ठीक उसी तरह के फल-धारण किये हुए अंकन किया गया है।
डॉ महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
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