कहानी:महाराष्ट्र में हरिनारायण नाम के एक संत थे। उनका छोटा सा आश्रम था। वहीं खेती के लिए थोड़ी जमीन थी। उसी में वे अन्न उगा लेते थे और उनका काम चलता था। हरिनारायण जी का एक नियम था कि जो भी उनके आश्रम आता था, उसे भोजन जरूर कराते थे। अपनी हैसियत के अनुसार वे काम करते थे।
एक रात जब वे सोने जा रहे थे तो घर के बाहर से आवाज आई, 'महाराज अगर जाग रहे हो तो हम लोग आए हैं, कृपया बाहर आइए।' उस रात बारिश हो रही थी। हरिनारायण जी अपनी कुटिया से बाहर आए तो देखा कि तीन साधु खड़े हैं।
तीनों साधुओं ने कहा, 'हम भोजन चाहते हैं।' हरिनारायण जी ने कहा, 'आज संयोग से भोजन की व्यवस्था नहीं है। बारिश की वजह से मैं आज कहीं जा भी नहीं सका। आप यहां सो सकते हैं, अभी मैं बस इतना ही आपके लिए कर सकता हूं।'
एक साधु ने कहा, 'आपके आसपास गांव हैं, आप वहां से अन्न और अन्य सामान लेकर व्यवस्था और संरक्षण नहीं कर सकते? ताकि ऐसे समय में वह सामान काम आ सके।' हरिनारायण जी ने कहा, 'मैं कभी भी किसी से कुछ मांगता नहीं हूं।'
उस साधु ने फिर कहा, 'तो फिर ये कुटिया और ये आश्रम कैसे बनाया है?' हरिनारायण जी बोले, 'ये सब मैंने अपनी मेहनत से बनाया है। मैं कथा करता हूं, जो मिलता है, जितना मिलता है, उससे ये सब बनाया है।'
दूसरे साधु ने पूछा, 'फिर अन्न की व्यवस्था कैसे करते हो?' हरिनारायण जी बोले, 'भजन गाता हूं, जप करता हूं और इनके बदले जो मिलता है, उससे अन्न की व्यवस्था करता हूं।'
अब तीसरे साधु ने पूछा, 'तो फिर बाकी चीजों की व्यवस्थाएं कैसे होती हैं?' हरिनारायण जी ने कहा, 'भगवान के नाम पर भगवान से ही मांगता हूं। इस मेहनत का नाम भक्ति है। मैं जितनी मेहनत करता हूं, उतना मुझे मिलता है। गांव वालों से इसलिए कुछ नहीं लेता, ताकि उनका धन और उनका अन्न उन लोगों के काम आए, जो सचमुच जरूरतमंद हैं।
मैं क्यों अधिक लेकर इकट्ठा करूं। बिना मेहनत के जो पाना चाहेगा, वह उस जमींदार की तरह होगा जो खुद कुछ नहीं करता है और दूसरों से लेता है।' तीनों साधुओं को संत हरिनारायण की बातें समझ आ गईं।
सीख
जीवन में हम जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हैं, वह अपनी मेहनत से ही प्राप्त करना चाहिए। जितना हमारे हक का है, हमारी मेहनत का है, सिर्फ उतना ही लेना चाहिए। दूसरों के हक का अन्न और धन कभी नहीं लेना चाहिए।
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