- ग़ज़ब की भौगोलिक विविधता वाले सिक्किम में फ़सलें भी कई हैं और जनजातियों के पसंदीदा व्यंजन भी। पूर्वोत्तर की सात बहनों के इस भाई के खानपान में शीत जलवायु के अनुकूल सामिष व्यंजनों की भरमार है और मिर्च व अचार की बहार।
- इस सुंदर राज्य के अलग-से स्वाद पर एक नज़र।
भारत के पूर्वोत्तरी राज्यों- असम, मेघालय, नगालैंड, मिज़ोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश को आमतौर पर ‘सात बहनों’ के रूप में पहचाना जाता है। इन बहनों की जनजातीय आबादी, संस्कार में बहुत सारी समानताएं देखने को मिलती हैं और अपनी पृथक विशेषताएं भी। इसी इंद्रधनुषी परिवार में एक ‘भाई’ भी है जिसका नाम सिक्किम है। खानपान के मामले में यह औरों से बिल्कुल अलग ज़ायक़े पेश करता है।
अंग्रेज़ी राज के दौर में पड़ोसी भूटान की तरह सिक्किम एक ‘संरक्षित’ राज्य था। सामरिक दृष्टि से संवेदनशील परंतु दुर्गम और पड़ोसियों से अलग-थलग। भारत में इसका विलय आज़ादी के बहुत बाद हुआ और इसकी पहचान कमोबेश ‘विदेश’ जैसी रही। यहां के शासक को चोग्याल कहा जाता था जो बौद्ध धर्म का संरक्षक था। सिक्किम में बौद्ध धर्म तिब्बती तांत्रिक वज्रयान की ही शाखा के रूप में फला-फूला। यहां के पेमेयांगत्से, इंचे, बाकिम, रुमटेक जैसे मठ प्रसिद्ध हैं।
हिंदू आख्यानों में भी यहां के भूगोल का उल्लेख मिलता है। किचोपेरी झील ही वह जगह है जहां यक्ष ने युधिष्ठिर के सामने यक्ष प्रश्न की चुनौती रखी थी। सिक्किम जन्मभूमि है डैनी डेनजौंगपा जैसे अभिनेताओं तथा बाइचैंग भूटिया जैसे खिलाड़ियों की। यह राज्य प्रसिद्ध है रंगबिरंगे ऑर्किड फूलों के लिए। पर यह सब यहां विषयांतर है।
भूगोल जैसा विविध भोजन
राज्य के खाने पर पड़ोसी तिब्बत, भूटान, तथा नेपाल का प्रभाव सबसे अधिक देखने-चखने को मिलता है। कंचनजंघा पर्वत की छाया में बसे छोटे आकार वाले इस राज्य में ग़ज़ब की भौगोलिक विविधता है। दक्षिण में तेज़ बहने वाली तीस्ता नदी से लेकर धुर उत्तर के चांगथांग जैसे ऊंचे चरागाहों में उगाई जाने वाली फ़सलें फ़र्क़ हैं और विभिन्न जनजातियों के प्रिय व्यंजन भी जुदा हैं।
यहां की ऊबड़-खाबड़ भूमि में बड़े खेतों का निर्माण नहीं हो सकता। दूसरी पहाड़ी जगहों की तरह सीढ़ीदार खेतों में ही चावल तथा गेहूं की फ़सलें उगाई जाती हैं। जहां सिंचाई के साधन सुलभ नहीं वहां रागी, मडुआ, जौ, ज्वार, आलू तथा सोयाबीन ही पैदा किए जाते हैं। जौ, मक्के का इस्तेमाल अनाज के रूप में होता है। बकरी, याक, सूअर के मांस के साथ मुर्ग़ी, अंडा, मछली चाव से खाए जाते हैं।
हाल के वर्षों में सिक्किम की आबादी का चेहरा काफ़ी बदल गया है। स्थानीय आदिवासी लेप्चा, भूटिया अल्पसंख्यक बन चुके हैं और राज्य की बहुसंख्यक आबादी नेपाली है। लिंबू, राई, मगर जैसी जनजातियां भी नेपालवंशी ही हैं। फिर इसमें अचरज की बात नहीं कि सिक्किम के खाने में नेपाली व्यंजनों का बाहुल्य है।
खानपान की भी राजधानी
राजधानी गंगटौक में राज्य के सभी इलाक़ों के व्यंजनों की आज़माइश की जा सकती है। यहां पर्यटक, स्थानीय निवासियों के साथ भाप से पके या हल्के तले सामिष या निरामिष ‘मोमो’ का आनंद टमाटर, लाल मिर्च की चटनी तथा सूप के साथ ले सकते हैं। भूख ज़्यादा लगी हो तो ‘थुकपा’ मंगवा लें- इसमें सब्ज़ियों या मांस के सूप में आटे के छोटे टुकड़ों को उबाला जाता है गुजराती दाल-ढोकली वाले अंदाज़ में।
फलियों (बीन्स) की ख़मीर चढ़ी सब्ज़ी ‘किनेमा करी’ कहलाती है और सरसों, मूली आदि की हरी पत्तियों को मिट्टी के बर्तन में ख़मीर उठाने के बाद पकाई जाने वाली हल्की खटास वाली ‘गुनद्रुक’ भी काफ़ी लोकप्रिय है। जाड़े के मौसम में जब सब्ज़ियां सुलभ नहीं होतीं तब यह ख़मीरी सब्ज़ी बख़ूबी साथ निभाती है। आजकल ‘गुन्द्रुक’ को दाल में भी शामिल करने लगे है। कुछ भोजनालय सिक्किम की थाली भी पेश करने लगे हैं जिसमें ‘कोदो’ (एक प्रकार की रागी) की चीलेनुमा रोटी को भी टमाटर की चटनी के साथ जगह मिलती है। गुझिया की शक्लवाले ‘फाश्ये’ के भीतर आमतौर मांस के कीमे की पीठी भरी रहती है। हां, जंगली खुंब ‘च्यूं’ का स्वाद लेना हो तो गांवों का ही रुख़ करना पड़ेगा।
गांवों में पारंपरिक व्यंजन
कभी सिक्किम के गांव दुर्गम थे और सामरिक संवेदनशीलता के कारण आम आदमी की पहुंच से बाहर। आज राज्य सरकार पर्यटन को बढ़ावा दे रही है और कई साहसिक पर्यटक सैर करने ग्लेशियरों तथा ऊंचे चरागाहों की तरफ़ निकलते हैं। इस यात्रापथ पर वे पारंपरिक लेप्चा-भूटिया व्यंजनों का मज़ा ले सकते हैं। रेखांकित करने लायक़ बात यह है कि लेप्चा-भूटिया खाना आज लुप्तप्राय हो गया है। जौ के आटे को नमकीन चाय में याक के मक्खन के साथ घोलकर संपूर्ण संतुलित आहार के रूप में सामान्यत: ग्रहण किया जाता था। आज मठों में धार्मिक अनुष्ठानों वाले सामुदायिक भोजों में ही इसके दर्शन होते हैं।
हर मठ के सालाना जलसे में रंगबिरंगे मुखौटे पहने नर्तक ‘छाम’ में भाग लेते हैं और छोटे-बड़े सभी बर्फ़ में रहने वाले शेर की नृत्य नाटिका का रस पारंपरिक व्यंजनों के साथ लेते हैं। इन्हीं मौक़ों पर मोटे अनाज के बने नूडल भी खाने को मिलते हैं।
याक के दूध से ‘चुर्बी’ नामक पनीर बनता है जिसे ताज़ा नरम तथा सख़्त दोनों तरह से खाया जाता है। चुर्बी को सुखाकर बहुत समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है। इसे ‘निंगरो’ (फ़र्न जैसी जंगली वनस्पतियों) के साथ भी पकाया जाता है।
मिर्च और अचार की बहार
नेपाली ज़ुबान पर मिर्च का ज़ायक़ा चढ़ा है और कई तरह के अचार यहां बनाए जाते हैं जिनमें बांस की कलियों का अचार उल्लेखनीय है। हालांकि ज़्यादा मसालों का प्रयोग यहां की रसोई में नहीं होता- हल्दी, पिसे तिल, अदरक, हरी और लाल मिर्च ही अपना चमत्कार दिखलाते हैं। दुनिया की सबसे तेज़ क़ुदरती मिर्च भूत झोलकिया की एक प्रजाति ‘डल्ली’ मिर्च का पुट तीखे व्यंजनों में महसूस किया जा सकता है। चावल के आटे से हल्का ख़मीर चढ़ाकर बड़ी-सी जलेबी जैसी गोलाकार मीठी ‘सेली’ रोटी बनाई जाती है। यों आज पर्यटकों की ज़रूरत और चाहत के अनुसार गंगटौक में ही नहीं छोटे क़स्बों में भी तवे और तंदूर की रोटियां मिलने लगी हैं, मखनी दाल और पनीर के साथ!
वैसे ‘दाल-भात-तरकारी-अचार’ ही नेपाली खाना रहा है। बकरे के मांस से ‘पक्कू’ करी त्योहारों तथा शादी-ब्याह के मौक़ों पर पकाई जाती है। खौलते पानी में गेहूं या मक्की के आटे को पकाकर ‘डिंडा’ या ‘डेडा’ तैयार किया जाता है। सब्ज़ियों में ताज़ा हरा या सूखा कद्दू, हरे साग तथा सूखे फूल काम लाए जाते हैं। कुछ पेड़ों की छाल को औषधीय मसालों की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
मदिरा नहीं तो चाय सही
सिक्किम एक ठंडा राज्य है। यहां मादक पेयों का चलन ठंड दूर करने के लिए आम है। चावल से बनी बीयर जैसी तिब्बती ‘छांग’ और अधिक नशीली नेपाली ‘रक्सी’ से अतिथि की आवभगत होती रही है। जो लोग शराब से परहेज़ करते हैं वे यहां की बेहतरीन चाय का मज़ा ले सकते हैं। यहां की ‘रांग्ली रांगलियोट’ नामक चाय काफ़ी मशहूर है।
बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि भारत में इलायची सबसे अधिक मात्रा में सिक्किम में पैदा होती है और बेहतरीन अदरक भी। हाल में सिक्किम ने एक और उपलब्धि अपने खाते में दर्ज कराई है। वह पूरी तरह जैविक खेतीबाड़ी करने वाला पहला भारतीय राज्य घोषित किया जा चुका है। ज़ाहिर है कि अपनी सेहत के बारे में फ़िक्रमंद लोग बेखटके सिक्किम में पेट पूजा कर सकते हैं!
दिलचस्प बात यह है कि बिल्कुल जुड़ा हुआ होने के बावजूद सिक्किम के खाने में असम या बंगाल के भोजन का प्रभाव ज़रा भी नहीं दिखलाई देता- न तो यहां ‘खार’ का चलन है और न ही सरसों-कासुंदी या खाने में मिठास का। ‘तिब्बती-नेपाली’ ज़ायक़ा ही यहां प्रमुख है। भोजन को सुपाच्य बनाने के लिए हल्का ख़मीर उठाया जाता है। तले, भुने व्यंजन कम प्रचलित हैं और मिठाइयों का अभाव साफ़ झलकता है।
गंगटौक के निकट रूमटेक का मठ जो ‘कर्मपा’ की गद्दी है। कर्मपा को दलाईलामा तथा पंचेन लामा की तरह महत्वपूर्ण धर्मगुरु समझा जाता है। नाथू ला दर्रे के पास भारत तथा चीन की सैनिक टुकड़ियां 1962 के बाद से लगातार तैनात रही हैं। पत्रकारों के दौरे होते रहते हैं। इनकी पसंद के दबाव में पित्ज़ा, बर्गर जैसे परदेशी झटपट खाने भी राज्य में प्रवेश कर चुके हैं। नई पीढ़ी फ़ैशन के दबाव में इनके प्रति आकर्षित तो हुई है पर उसे अपनी खान-पान की पारंपरिक विरासत पर भी कम नाज़ नहीं। अपनी पोशाक की तरह वह इसे भी अपनी सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग समझने लगी है।
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