- जीवन संघर्षों का ही नाम है और उसमें आने वाली चुनौतियों को हर दिन हराते हुए विजेता के रूप में जिया जा सकता है। चाहिए तो बस जीवन पर विश्वास और अपनों का साथ।
- एक परिवार का यह अनुभव यही बताता है कि कैंसर जैसा विकट रोग भी इंसान के जीवट से बड़ा नहीं हो सकता।
- यह महज़ दु:ख की दास्तान नहीं है, बल्कि हौसला, आशा, प्रेम और सबसे बढ़कर भारतीय परिवारों में रिश्तों की गहराई और आत्मीयता का आख्यान है।
वह कोई यादगार दिन तो नहीं था, परंतु याद हमेशा रहेगा। मुंबई के एक अस्पताल में फेफड़ों के प्रमुख विशेषज्ञ डाक्टर ने मेरी पत्नी ज्योति को व्यापक जांच के बाद कैंसर ग्रस्त होने की सूचना सीधे ही दे दी थी। तब ज्योति तनिक भी विचलित हुए बिना बोली थीं– ‘कोई बात नहीं मैं अच्छी हो जाऊंगी।’ यह निर्भय प्रतिक्रिया देखकर हम सब आश्चर्यचकित रह गए और हमारा भय कम हो गया।
सचमुच में वह कुछ ही माह में चंगी होकर पुरानी दिनचर्या में लौट आईं। पेटस्केन रिपोर्ट के अनुसार कैंसर के धब्बे जा चुके थे। यह सब आसानी से नहीं हुआ था। कीमोथैरेपी के ख़तरनाक प्रभाव हिला देने वाले थे। ऐसे समय में हमारा पूरा परिवार इस ‘योद्धा’ का साथ देने एकजुट हो गया। हमारा बड़ा परिवार है। मेरे बेटे, बहू, भाई, भाभी, बहनें, बहनोई, मेरी वृद्ध माता, सासू मां, साले, सलहज, उनके बच्चे, मित्र, सब इस युद्ध में अपनी-अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्काल तैयार हो गए। वैसे यह युद्ध कैंसर और मरीज़ के बीच का ही द्वंद्व होता है, पर घर-परिवार पूरा डोल जाता है और परिजनों का संतुलित रहकर साथ देना बहुत ज़रूरी होता है। मैं पहले जब कैंसर अस्पताल में मरीज़ों और उनके परिजनों को देखता था ताे उनके प्रति वैसे ही भाव आते थे, जैसे किसी तीर से घायल छटपटाते पक्षी को देखकर आ सकते हैं। जब वह तीर अपने को ही लगता है तब वे पहले वाले भाव गुणित होकर पीड़ा के असल अनुभव से रूबरू कराते हैं।
अस्पताल के कमरे में बतियाती ज़िंदगी
रोग का पता चलते ही कीमोथैरेपी का कार्यक्रम तय हो गया था। अस्पताल पूरी तरह सुसज्ज था। हमें जो कमरा मिला था उसमें एक वृद्ध मरीज़ थीं और उनके पति पूरे समय तीमारदारी में रहते थे। इलाज शुरू होने के कुछ दिन बाद जब हृदयाघात जैसे लक्षण, रक्तकणों की कमी जैसे ख़ौफ़नाक अनुभव कम हुए और रोग के लक्षण भी घटते दिखे, तो ज्योति जो कि पहले भी भय से दूर थीं, अब अपने पुराने रंग यानी दोस्ती, मेल-मिलाप और बतियाने में लौट आईं। वृद्धा और उनके पतिदेव से बातचीत होने लगी। इस तरह हमारी योद्धा ने आसानी से अपना परिवार वहां भी बढ़ा लिया। हम उन्हें कनु काका कहने लगे।
ज्योति अपने फोन पर भजन-गीत वग़ैरह बजाने लगी थीं और फिर स्वयं भी गाती रहती थीं। बीच का परदा सरका दिया जाता और बातों और गीतों का दौर चलता रहता। जैसे किसी पिकनिक पर आए हों! कनु काका ज्योति के जीवट और मिलनसारिता पर इतने फ़िदा हो गए कि एक दिन एक काग़ज़ पर उनके लिए गुजराती में एक मार्मिक कविता ही लिखकर ले आए। मैं उस कविता को पढ़ते हुए सोचता रहा कि कैसे, किन तानों-बानों से हमारे संबंधों के धागे नए शिल्प गढ़ते रहते हैं। इस तरह इलाज की परेशानियों के बीच भी वहां जीवन अपने पूरे वात्सल्य के साथ प्रवाह में रहा।
अपने हों साथ तो चिंता की क्या बात
मेरे सबसे छोटे भाई की पत्नी तो दूसरे ही दिन से मुंबई आकर ज्योति की तीमारदारी में लग गई थीं, सो इन जेठानी-देवरानी की संगत से मैं देखरेख के भार से तो निश्चिंत था। गृहनगर भोपाल आए तब मंझले भाई की पत्नी ने वह भूमिका संभाल ली। रोग में कुछ नियंत्रण दिखने के बाद अस्पताल से छुट्टी मिलने पर हम बड़े बेटे-बहू के साथ मुंबई में ही अंधेरी स्थित फ्लैट में रहे। बेटे-बहू ने अपना कमरा सैनिटाइज़ करके हमारे हवाले कर दिया और कामकाज के साथ-साथ मां की सेवा में भी जुट गए। छोटा बेटा भी पुणे की नौकरी से नियमित रूप से छुट्टी लेकर निरंतर साथ बना रहा। बाद में तो उसने इन्हीं परिस्थितियों को संभालने के लिए नौकरी ही छोड़ दी और साथ रहने भोपाल आ गया।
बहरहाल, कीमोथैरेपी के लिए 21 दिन बाद पुनः अस्पताल जाने के बीच पिछली कीमोथैरेपी के दुष्प्रभावों के साथ जीवन बहुत कठिन तो था पर परिवार के साथ ने मुश्किलें बहुत कुछ कम कर दी थीं। उधर जितनी बार भी हम अस्पताल से घर लौटते, ज्योति कार के दो घंटे में, मुंबई के ट्रैफ़िक से बेख़बर, मेरी पांचों बहनों, अपने भाई-भाभी और अन्य परिजनों से बारी-बारी से फ़ोन लगाकर बात करती रहतीं और पूरा वृत्तांत देतीं, मानो हम किसी पर्यटन से लौटे हों।
बदस्तूर जारी रहा जीवन का आनंद
हमारे मामले में डॉक्टरों का स्पष्ट मत था कि चौथी स्टेज का कैंसर लाइलाज होता है और हमारे पास कुछ महीने ही थे। ज्योति को हमने कभी निराश, रोते-बिलखते नहीं देखा। उन्होंने मृत्यु की निकटता को तो कनखियों से भी नहीं देखा होगा। मैं बहुत सदमे में था पर आघात आपको जूझने की शक्ति भी देते हैं। वह चार-पांच महीने में सामान्य होकर मेरे साथ बाहर आने-जाने लगी थीं और लोग उनके जीवट और हमारे भाग्य पर मुग्ध हो गए थे। सासू मां ने तो मुझे ‘सावित्री’ कह दिया, जैसे मैं ही पत्नी को मृत्यु के पाश से छुड़ाकर लाया। सच यह था कि पत्नी के आत्मबल ने ही उपचारों को शरीर पर सकारात्मक असर करने दिया। परिवार में धार्मिकता तो पहले से ही रही पर अब ईश्वरीय शक्तियों की चौखट पर माथा रगड़ने का काम और अधिक निष्ठा से हमने किया।
हमारे छोटे बेटे के लिए वधू चयन और फिर शादी की धूमधाम भी हमने पूरे मनोयोग से सफलतापूर्वक की। ज्योति मानो आनंद फ़िल्म के नायक की तरह खिलंदड़ जीवन जीते हुए एक मिसाल बनी हुई यूं विचर रही थीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उन्होंने अपने शौक़ नृत्य का पूरा आनंद लिया। उनके पास ज़िम्मेदारियां भी थीं जो यथाशक्ति पूरी कीं। रोग ने कई बार वापसी भी की पर बीच में ही हमने देश-विदेश की यात्राओं और उत्सवों का आनंद भी लिया। यूरोप के कुछ देशों की यात्रा पर निकलने के एक दिन पहले तक तो कीमोथैरेपी के प्रभाव से ज्योति काफ़ी बीमार थीं पर फिर चमत्कारिक रूप से यात्रा के लायक़ हो गईं। इस यात्रा में हम दोनों के साथ नितांत अजनबी लोगों का ग्रुप था, किंतु लौटने तक हमारा एक परिवार बन चुका था। वह छोटा-सा टूर हमारे परिवार को और बड़ा और विविध-रंगी बना गया। परिवार बनाने-बढ़ाने की यह चाहत तो भोपाल के अस्पताल में भी सभी डाॅक्टरों, नर्सों, आयाओं तक बनी रही।
सच तो यही है कि कैंसर का पहली बार पता चलने से ही जो झंझावात शुरू होता है, वह सबको हिला देता है, पर किसी एक मज़बूत वृक्ष को पकड़कर इसमें बह जाने से बचा जा सकता है। वह वृक्ष स्वयं रोगी का जीवट तो होता ही है, जीवनसाथी तथा अन्य निकटतम संबंधी भी उसी भूमिका में होते हैं। ऐसे समय में अतीत को भुलाकर या दूरियां पाटकर जो लोग साथ हो जाते हैं, उनके लिए यह संघर्ष बहुत कम पीड़ादायक और कुछ सरल हो जाता है।
छह माह बढ़कर आठ बरस हो गए
डाॅक्टरों के छह माह के दिए गए समय को किसी खेल की तरह तो कभी किसी युद्ध की तरह आठ साल लंबे सफ़र जितना तो ले आए। बीते साल अपने जन्मदिन पर उन्होंने मुझसे इशारे से अपना लेखन जारी रखने का वचन लिया। पर तब भी चेहरे पर हमेशा की तरह ही कोई भय या मन मसोसने का भाव नहीं था। उस दिन भी अपने डॉक्टर के साथ छोटे भाई का-सा विनोदी बर्ताव था। चूंकि मैं संक्रमित था इसलिए हमारे बीच वही संकोच था जो नई-नई कोर्टशिप करते जोड़ों के बीच होता है। दो ही दिन बाद सुबह-सुबह ज्योति उस आईसीयू से हमेशा के लिए अलविदा कह गईं। कुछ ही समय बाद हमारे घर पोती के रूप में आकर वह उसी हाव-भाव और चंचलता से संबधों के चुंबक से अपनी ओर खींचे रहती हैं।
हम सब जान गए हैं कि जीवन संबंधों की रस्सी पर नट के खेल जैसा रोमांचक और जोख़िम भरा तो है, पर रिश्तों के बांस का संतुलन और दृष्टि का सधे रहना इस सफ़र को बेलौस और भयमुक्त बना देता है। झुंड के किसी एक मृग पर मृत्यु रूपी चीते द्वारा झपटा जाना मात्र एक इत्तेफ़ाक हो सकता है, परंतु किसी मृग की तरह ही साथ-साथ चौकड़ियां भरना, अठखेलियां करते रहना हमारा स्थायी स्वभाव हो तो जीवन में आनंद ही आनंद है।
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