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कश्मीरी हिंदुओं के पहले रक्षक गुरु श्री तेग़बहादुर जी

 

कश्मीर, 1990, हमारे लाखों भाई-बहन अपने ही घर से बेदख़ल कर दिए गए। पता नहीं कितनी आंखें अपनी वादी के देवदार देखने की हसरत लिए बुझ गईं, कितनी ज़ुबानें अपनी पतीली में पकी हुई कश्मीरी फिरनी का ज़ायक़ा याद करते हुए हमेशा के लिए ख़ामोश हो गईं, कितने हाथ शंकराचार्य मंदिर का घंटा बजाने की कामना लिए ठंडे पड़ गए, कितने मस्तक खीर भवानी की चौखट पर दोबारा झुकने को तरसते रह गए। श्रीराम तो फिर भी 14 बरस में घर लौट आए थे, लेकिन कश्मीरी पंडितों का वनवास कब पूरा होगा? कब उनकी अयोध्या उन्हें वापस मिलेगी? ये प्रश्न अभी तो अनुत्तरित हैं, लेकिन एक दिन ये सवाल ज़रूर खड़े होंगे, इसका आभास सिखों के नवें गुरु, गुरु श्री तेग़बहादुर जी को साढ़े तीन सौ वर्ष पहले ही हो गया था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि कश्मीरी हिंदुओं के हित के लिए पहला बलिदान गुरु तेग़बहादुर ने दिया था, जिनका जन्म दिवस दो दिन पहले पूरे देश ने मनाया। आइए पलटते हैं इतिहास के पन्ने। 1669 में औरंगज़ेब ने हिंदू मंदिरों को तोड़ने का आदेश जारी कर दिया। देखते ही देखते, भोलेनाथ की काशी उजाड़ दी गई, मथुरा का ‘केशव राय मंदिर’ तहस-नहस कर दिया गया। लेकिन भारत की प्रज्ञा और संस्कृति का सर्वनाश तब तक सम्भव नहीं था, जब तक कश्मीर मुग़लिया झंडे तले न आ जाए। ऐसा क्यों, क्या ख़ास बात थी कश्मीर में?

भारत भूमि पर, विद्वानों, पंडितों, ऋषियों, तपस्वियों और बुद्धिजीवियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था कश्मीर। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य पैदल चलकर केरल से कश्मीर आए थे। अभिनवगुप्त, उत्पल देव जैसे दार्शनिक, चरक और वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदाचार्य, कालिदास और मुद्रक जैसे साहित्यकार, पंचतंत्र के रचयिता विष्णु शर्मा, नाट्यशास्त्र रचने वाले भरतमुनि, कश्मीर सबकी कर्मभूमि थी।

औरंगज़ेब ने सनातन संस्कृति के सर्वनाश के लिए शेर अफ़ग़ान खान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया और शेर अफ़ग़ान खान की तलवारें कश्मीरी हिंदुओं को चीरने लगीं। फ़रमान साफ़ था, इस्लाम क़ुबूल करो, या मरो। हैवानियत बाल खोले घाटी में नाच रही थी। कश्मीरियों के लिए जब कहीं कोई आवाज़ नहीं उठी, तो 1675 में एक कश्मीरी पंडित, श्री कृपाराम जा पहुँचे गुरु तेग़ बहादुर साहिब के पास। गुरु जी ने उनकी वेदना सुनी तो तड़प उठे। उन्होंने पंडितों के हाथ औरंगज़ेब को संदेश भिजवाया, ‘पहले मुझे इस्लाम स्वीकार करवा लो, फिर कश्मीरी पंडित स्वयं इस्लाम स्वीकार कर लेंगे’ औरंगजेब को जब यह संदेश मिला तो उसने गुरु तेग़ बहादुर को दिल्ली दरबार में उपस्थित होने का फ़रमान भेज दिया। गुरु तेगबहादुर बलिदानी चोला ओढ़कर दिल्ली निकल पड़े, भाई मतिदास, भाई दयानाथ, भाई सतिदास और भाई चैता के साथ।

औरंगज़ेब ने गुरु साहिब से कहा “तुम्हारे पास दो ही रास्ते हैं 'यातना या खतना’।

गुरु साहिब ने ख़तने से इंकार किया तो औरंगज़ेब ने उन्हें क़ैद करवा लिया और भीषण यातनाएँ देने लगा। कश्मीरी हिंदुओं के लिए गुरु साहिब ने तमाम यातनाएँ हंस के स्वीकार कर लीं। औरंगज़ेब ने अपनी आस्तीन का हर ख़ंजर आज़मा लिया लेकिन गुरु साहिब टस से मस नहीं हुए।

फिर औरंगज़ेब ने वही किया जो एक बुज़दिल को शोभा देता है। एक-एक कर के गुरु साहिब के साथियों की बलि देने लगा।

भाई मतिदास को श्री गुरु जी के सामने आरी के कटवा दिया, भाई दयानाथ को खौलते पानी में डाल कर मार दिया, भाई सतिदास को रुई में लपेट कर आग लगा दी। लेकिन गुरु तेग़ बहादुर साहिब के एक भी शिष्य को औरंगज़ेब सजदा नहीं करवा पाया। आख़िर में उसने एक क़ाज़ी को गुरु तेग़ बहादुर के पास कलमा पढ़वाने के लिए भेजा। गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी ने उसी क़ाज़ी से औरंगज़ेब को संदेश भिजवा दिया, “धर्म नहीं छोद्दूँगा, प्राण छोड़ने को तैयार हूँ।”

11 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक पर, श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी का सर धड़ से अलग कर दिया गया। ये था कश्मीरी पंडितों के लिए दिया गया सर्वोच्च बलिदान। एक सिख गुरु ने, आने वाले अनगिनत युगों के लिए हिंदुओं पर अपनी करुणा का ऐसा ऋण चढ़ा दिया, जिसे उतार पाना सम्भव नहीं। हमारे मंदिरों के भगवा ध्वज, गुरु साहिब की केसरी पगड़ी को सम्मान और श्रद्धा से याद करते रहेंगे।

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