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स्वयं का बोध न होने पर इच्छा भी नहीं रह जाती

बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर जहां गौतम बुद्ध को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। - Dainik Bhaskar

बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर जहां गौतम बुद्ध को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

विभिन्न समाजों में विश्व की कल्पना और उस कल्पना की कला में अभिव्यक्ति अलग-अलग तरीक़ों से की जाती है। इसके अध्ययन से हम विश्व को देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण जान सकते हैं। उदाहरणार्थ, बौद्ध स्तूपों के शिखर पर विशेष छतरियां सुमेरु पर्वत की संकेतक हैं। यह पर्वत विश्व का केंद्रीय अक्ष है, जिसके ऊपर कई स्वर्ग स्थित हैं। उनके ऊपर निर्वाण प्राप्त कर बुद्ध एक निराकार अवस्था में विराजमान हैं।

बौद्ध जीवन का उद्देश्य 'निर्वाण' प्राप्त करना है। इस संस्कृत शब्द को पाली भाषा में 'निब्बाण' कहते हैं। विस्मृति की इस स्थिति में स्वयं का कोई बोध नहीं होता है। जब स्वयं का बोध नहीं होता, तब कोई इच्छा नहीं होती और जब इच्छा नहीं होती, तब दुःख भी नहीं होता।

लेकिन प्राचीन भारत के अधिकांश लोगों की तरह बौद्धधर्मीय भी द्विवर्णों में विश्वास नहीं रखते थे। वे मानते थे कि लोग विभिन्न चरणों से गुज़रते हैं। और इसलिए, जबकि कुछ लोग विश्व से पूरी तरह से आसक्त होते हैं, बुद्ध उससे पूरी तरह से तटस्थ हैं। इन दो सीमाओं के बीच कई श्रेणियों के लोग हैं। बौद्ध पुराणशास्त्र के सबसे प्राचीन विवरणों को पढ़कर हम इस श्रेणीकरण को समझ सकते हैं।

बौद्ध विश्व क्षैतिज और लंबवत दोनों दिशाओं में फैला है। क्षैतिज दिशा में उसकी कल्पना एक चक्र के रूप में की गई है। इसके बीच सुमेरु पर्वत है और उसके चारों ओर संकेंद्रित भूमि व जल समूहों की एक शृंखला है। उसके चारों ओर चार महाद्वीप हैं। दक्षिण की ओर फैले 'जम्बूद्वीप' नामक महाद्वीप में भारत स्थित है।

लंबवत दिशा में विश्व के तीन भाग हैं: पहले भाग में कई क्षेत्र हैं, जिनमें स्थित जीवों की इच्छाएं और आकार दोनों हैं। इनके ऊपर स्थित कई क्षेत्रों में जीवों के आकार होते हैं, लेकिन कोई इच्छा नहीं होती। और सबसे ऊपर ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें जीवों को न इच्छा होती है और न आकार। अलग-अलग शास्त्रों के अनुसार इन क्षेत्रों की संख्या अलग है। लेकिन संख्या मायने नहीं रखती, विचार मायने रखता है।

मानव विश्व के नीचे कई नर्क होते हैं। यहां लोगों को बौद्धों के साथ बुरा व्यवहार करने, धर्म का पालन न करने और इच्छा से आसक्त होने जैसे ग़लत कार्य करने पर तड़पाया जाता है। नर्कों के ऊपर 'पिशाच' नामक भूखी आत्माओं का क्षेत्र है, जो पुनर्जन्म लेने के लिए रुकी होती हैं। इसके ऊपर भू-लोक है जहां मनुष्य जानवरों और पौधों के साथ रहते हैं। ये सारे बुरे और मिश्रित कर्मों के क्षेत्र हैं।

सुमेरु पर्वत से लगकर जैसे हम इस भू-लोक के ऊपर जाते हैं, वैसे चार महान राजाओं अर्थात 'चतुर महाराजाओं' का स्वर्ग आता है। ये महाराज चारों दिशाओं को नियंत्रित करते हैं। इस क्षेत्र के ऊपर पहले इंद्र और फिर यम, तुषित और अंततः ब्रह्मा के स्वर्ग हैं। ये अच्छे कर्मों के क्षेत्र हैं।

आकारों के विश्वों के बारे में अनोखी बात यह है कि जैसे-जैसे हम सुमेरू पर्वत से लगकर ऊपर जाते हैं, वैसे-वैसे लोग भी लंबे होते जाते हैं। और ऊंचाई के साथ-साथ उनकी आयु में भी वृद्धि होती जाती है।

इच्छा के क्षेत्र के बाद 'ध्यान बुद्धों' के रूपों का क्षेत्र आता है, जिन्होंने पूरी तरह से आकार को नहीं छोड़ा है। इसके ऊपर शुद्ध चेतना और शून्यता के कई क्षेत्र हैं और ऐसे क्षेत्र भी हैं जिनमें जीवों को कोई बोध नहीं होता। यहां भी आयु और आकार का विस्तार होते जाता है। इसके बाद ही शाक्यमुनि बुद्ध का क्षेत्र आता है। चूंकि उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया है, उनका कोई रूप नहीं है और इसलिए उनमें कोई इच्छा भी नहीं है। इसलिए वे कालातीत और निराकार बन गए हैं, जिन्हें सीमित नहीं किया जा सकता।

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