- भारत में चिकित्सा का इतिहास अति प्राचीन है। चिकित्सा और परिचर्या यानी नर्सिंग के विषय में विशद वर्णन वैदिक व पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। वैदिक काल में परिचर्या के कार्य को अत्यंत आदर की दृष्टि से देखा जाता था।
चिकित्सा के क्षेत्र में रोगी की परिचर्या एक अतिआवश्यक और महत्वपूर्ण कार्य है। परिचर्या वह क्रिया है जिसमें रोगी मनुष्य की देखभाल इस तरह से की जाती है कि चिकित्सक द्वारा किए जा रहे उपचार का अधिकाधिक लाभ उसे प्राप्त हो सके। परिचर्या के कई स्तर होते हैं, यथा- रोगी की देखभाल, औषधि का प्रबंध, रोगी को समय पर औषधि का सेवन करवाना एवं अन्य सभी प्रकार की चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करवाना।
आदिकाव्य रामायण में प्रसंग आता है कि सायंकाल में युद्धविराम के पश्चात पवनतनय हनुमानजी और राक्षसराज विभीषण हाथों में मसाले लेकर समरभूमि में घूमने लगे, ताकि जो-जो वानर अभी जीवित हैं उनकी सेवा करके उन्हें धीरज बंधाया जा सके। तदन्तर वानरों को पुन: जीवित करने के उद्देश्य से ऋक्षराज जाम्बवान ने हनुमानजी को पर्वतराज हिमालय से चार प्रकार की औषधियां यथा मृतसञ्जीवनी (मरों को जिलाने वाली, विशल्यकरणी) घावों को पूरने वाली, सावर्णकरणी (घाव का रंग बदलकर पूर्ववत कर देने वाली), संधानकरणी (घाव भरने पर खाल को जोड़कर एक-सा कर देने वाली) लाने को कहा था। तत्पश्चात आंजनेय औषध-पर्वत को सामूल उठाकर लंका प्रदेश ले आए थे। यह परिचर्या का उत्तम उदाहरण है।
महात्मा बुद्ध ने छह श्रेष्ठतम बातों में से एक श्रेष्ठतम परिचर्या (सेवा) बताई है। एक प्रसिद्ध कथानुसार एक भिक्खु की देह इतनी रुग्ण हो गई थी कि वह अपने स्थान से उठ पाने में अक्षम था। जब किसी अन्य भिक्खु साधु ने उसकी सहायता नहीं की और उससे दूरी बना ली तब स्वयं तथागत ने उसकी परिचर्या की। उसे स्नान करवाया, स्वच्छ किया और उसकी ख़ूब सेवा-शुश्रूषा की। तथागत ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि मानव मात्र की परिचर्या ही श्रेष्ठ सेवा है।
वैदिक काल में रुग्ण व्यक्ति की सेवा शुश्रूषा करने के कार्य को अत्यंत आदर की दृष्टि से देखा जाता था। ऋग्वेद में वैद्य के कार्यों और गुणों के बारे में उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
यत्रौषधी समग्मत राजान: समितामिव।
विप्र स उच्येत भिषग्रक्षोहाऽमीवचातन।।
- ऋग्वेद 10/ 69/6
जिस प्रकार क्षत्रिय युद्ध में एकत्र होते हैं उस प्रकार जिसके पास सर्व औषधियां एकत्रित होती हैं उस विद्वान का नाम वैद्य होता है और वही राक्षसों-रोगबीजों का हनन करने वाला तथा रोगों को दूर करने वाला होता है। अर्थात रोगनिवारक औषधियों का संग्रह करना तथा उनकी उत्तमता से योजना करना वैद्य का काम होता था।
7वीं शताब्दी में चीन से बौद्ध यात्री इत्सिंग अपने आराध्य तथागत की भूमि पर विद्याध्ययन के उद्देश्य से आया था। इत्सिंग के अनुसार, विद्यार्थी आचार्य के पास जाकर उनकी सेवा करते थे। विद्यार्थी गुरु के प्रत्येक आदेश का पालन करने के लिए कटिबद्ध रहते थे। इसके विपरीत यदि कभी शिष्य अस्वस्थ हो जाए तो आचार्य का कर्त्तव्य था कि वे उसकी परिचर्या करें और उसे आवश्यक औषधियां दें।
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