महाभारत युद्ध शुरू होने वाला था। कौरव और पांडवों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने हुए थे। अर्जुन कौरव पक्ष में अपने पितामह, गुरु और कुटुंब के अन्य लोगों को देखकर भ्रमित हो रहे थे।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि केशव रथ को कौरव सेना की ओर ले चलें, ताकि मैं कौरव पक्ष के मेरे कुटुंब के लोगों को ठीक से देख सकूं। श्रीकृष्ण कुछ बोले नहीं, उन्होंने रथ आगे बढ़ा दिया।
अर्जुन ने जब पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अन्य लोगों को देखा तो अपने धनुष-बाण रथ में रख दिए और श्रीकृष्ण से कहा कि मैं ये युद्ध नहीं करना चाहता। मैं मेरा गांडीव नहीं उठा पा रहा हूं। मेरे शरीर में शक्ति ही नहीं है कि मैं ये युद्ध कर सकूं। मुझे समझ नहीं आ रहा है कि ये युद्ध करना चाहिए या नहीं करना चाहिए।
ये बात सुनकर श्रीकृष्ण समझ गए कि अर्जुन भ्रमित हो गए हैं। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि जीवन में सारी कमजोरियां चल सकती हैं, लेकिन भ्रमित होना सबसे खतरनाक है। इसके बाद अर्जुन का भ्रम दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म का महत्व बताया था।
श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम युद्ध इसलिए नहीं कर रहे हो, क्योंकि तुम्हारे सामने तुम्हारे रिश्तेदार हैं। तुम ये युद्ध धर्म की रक्षा के लिए कर रहे हो। हमें सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए। फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम अपने सारे भ्रम दूर करके युद्ध पर ध्यान लगाओ।
गीता का ज्ञान सुनने के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा था कि अब मेरे सारे भ्रम दूर हो गए हैं और मैं अब मजबूत संकल्प के साथ युद्ध करने के लिए तैयार हूं।
अगर हम भी कोई बड़ा काम शुरू करना चाहते हैं तो हमें सभी तरह के भ्रमों से बचना होगा। भ्रमित होकर किए गए काम में सफलता नहीं मिल पाती है। भ्रम छोड़कर मजबूत संकल्प के साथ काम करने से ही सफलता मिल सकती है।
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