हितांश ने स्कूल की खेल प्रतियोगिता के दौरान रेस में हिस्सा लिया। रेस में कुल 60 बच्चे शामिल थे। हितांश 12वें स्थान पर आया। सभी प्रतिभागी बच्चों को एक पुस्तक इनाम के रूप में दी गई थी। जबकि टॉप 3 बच्चों को पुरस्कार के रूप में वीडियो गेम्स दिए गए थे। हितांश ख़ुश था पर उसकी मम्मा उदास और निराश थीं। तब हितांश के पिता ने कहा, ‘नाराज़ क्यों हो रही हो? हमारा बेटा 48 बच्चों से ज़्यादा अच्छा दौड़ा और एक शानदार पुस्तक जीत लाया। उसके पास बेहतर करने के लिए 11 स्थानों के स्लॉट्स हैं! हर बार पहले से बेहतर, और बेहतर। यानी ख़ुश होने, प्रगति करने के 11 अवसर।’
नुकसान एकपक्षीय नज़रिए के...
असल में हमारा समाज सिर्फ़ सर्वश्रेष्ठ और टॉप विनर की सराहना करना जानता है। मानो जीतने वाले टॉप-3 के अलावा दूसरे लोगों का कोई महत्व या स्टेटस ही नहीं। हम हरदम और हर क़ीमत पर जीतना चाहते हैं। यह ‘हरदम’ और ‘हर क़ीमत’ पर जीतने की जि़द न सिर्फ़ हमारे शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ रही है बल्कि सामाजिक ताने-बाने और लोगों के साथ निजी संबंधों पर भी बुरा असर डाल रही है। जीतने का जुनून बुरी बात नहीं है लेकिन हम हमेशा सबसे आगे रहने की ज़िद करते हैं, तो ज़िंदगी को सही तरीक़े से जीना भूल जाते हैं। ख़ुशी हासिल करने की इस कोशिश में अक्सर दुखी रहने लगते हैं। इससे छोटी-मोटी असफलता हमें शूल की तरह चुभने लगती है और हम उसे सहजता से लेकर आगे नहीं बढ़ पाते या दूसरी महत्वपूर्ण चीज़ों पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते। न ही हम अपनी उन शक्तियों को पहचान कर इस्तेमाल कर पाते हैं जो हमें श्रेष्ठता के मुकाम पर ले जा सकती हैं।
मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म आरएचआर इंटरनेशनल ने 83 बड़ी कंपनियों के चीफ एग्जीक्यूटिव्स पर किए गए रिसर्च में पाया कि ये सभी अधिकारी हर चीज़ में आगे रहने की दौड़ और अत्यधिक काम के भार के कारण घबराहट (एंग्ज़ायटी) और तनाव का शिकार हो चुके थे।
झूठा एहसास ठीक नहीं
कुछ लोग येन-केन प्रकारेण छल कपट या ग़लत रास्ते से विजय हासिल करते हैं। कई लोग हारने के बावजूद ख़ुद को जीता हुआ मानते हैं क्योंकि वे हारने को किसी बहुत बड़े गुनाह या पाप की तरह देखते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं। ‘टॉप डॉग: द साइंस ऑफ विनिंग एंड लूजिंग’ की लेखिका एश्ले मेरीमैन ने कहा है कि ‘हारना सफलता के झूठे एहसास से कहीं बेहतर है।’ छोटे से छोटा बच्चा भी जानता है कि किसने अच्छा प्रदर्शन किया और जीतने का हक़दार कौन था। ऐसे में झूठी जीत या ग़लत तरीक़े से जीत बाद में आत्मग्लानि या असंतुष्टि का परिचायक बन सकती है।
अहंकारी बनाती है जीत
कोई व्यक्ति किसी संयोग से लगातार जीतता भी चला जाए तो एक समय बाद उसे जीतने का सुख मिलना बंद हो जाता है। ऐसे में सफलता को वह हल्के में लेने लगता है। कई बार वह अहंकारी हो जाता है और ख़ुद को अपने भाग्य का विधाता समझने लगता है। जैसे मीठे का मज़ा नमकीन के बाद आता है, ठीक वैसे ही किसी सफलता का असली मज़ा संघर्ष या कभी-कभार मिली असफलता के बाद ही आता है। इतना ही नहीं बार-बार जीतने वाला अपने कर्म के प्रति लापरवाह बन जाता है, गंभीरता खो बैठता है। नतीजतन आगे चलकर उसे किसी बड़ी हार का सामना करना पड़ता है।
थोड़ा-सा तनाव भी ज़रूरी है
शोध बताते हैं कि आगे बढ़ने के लिए थोड़ा-सा तनाव आपकी जिं़दगी में ज़रूरी है। कनाडा के मनोविज्ञानी डॉ. मॉन्डर कहते हैं, ‘तनाव की अनुपस्थिति जीवन को ऊबाऊ बना देती है, इसलिए थोड़ा-सा तनाव होना चाहिए।’
जब स्थितियां आपके प्रतिकूल चलती हैं, पढ़े-लिखे होने के बावजूद काम नहीं मिलता, नौकरी मिलती है तो काम का दबाव ज़्यादा होता है, कुछ करते हैं तो उसका फल नहीं मिलता या व्यापार में नुकसान हो जाता है, तो ऐसे में तनाव होना ज़ाहिर है। यह तनाव आपको सोचने को मजबूर कर देता है कि चीज़ों को अनुकूल कैसे किया जाए। नौकरी ढ़ूंढ़ने के लिए किस ज़रिए का इस्तेमाल किया जाए, ज़्यादा काम को समय पर निपटाने के लिए समय का प्रबंधन कैसे किया जाए, बेहतर परिणाम के लिए किस प्रकार काम किया जाए और भविष्य में नुकसान से बचने के लिए कौन-सी सावधानियां बरती जाएं, इस आप बेहतर तरीके से काम करते हैं। इसलिए हारना भी ज़रूरी है।
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