कहानी:एक दिन कैलाश पर्वत पर देवी पार्वती की दो सखियां उनके पास आईं। सखियों ने देवी से कहा, 'शिव जी के अनेक गण उनकी सेवा में लगे रहते हैं। विवाह के बाद जब आप यहां आकर रहने लगी हैं तो वे गण कुछ मर्यादा नहीं मानते हैं। वे बिना अनुमति ही आपके कक्ष में भी प्रवेश कर जाते हैं। हमारी तो कोई बात नहीं मानते हैं। शिव जी के पास इतने गण हैं तो आप भी हमारे लिए एक गण रचना करें।'
पार्वती जी को भी ये बात ठीक लगी। कम से कम कोई तो होना चाहिए कि जो लोगों को बिना अनुमति कक्ष में आने से रोके।
शिव जी के गण कहते थे कि देवी तो हमारी मां हैं और हम उनके कक्ष में जा सकते हैं। इसके बाद एक दिन जब देवी पार्वती स्नान कर रही थीं तो शिव जी कक्ष में प्रवेश कर गए। पार्वती जी को बड़ी लज्जा आई। उन्होंने सोचा कि मेरी सखियां ठीक कह रही थीं कि कोई तो होना चाहिए जो मेरी अनुमति के बिना दूसरों को मेरे कक्ष में आने से रोके। एक सेवक होना चाहिए, जो मेरी आज्ञा माने।
देवी पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक चेतन पुरुष की रचना कर दी। वह बहुत ही सुंदर था, उसमें कोई दोष नहीं था। देवी पार्वती ने उसे दिव्य वस्त्र पहनाए, आभूषणों से सजाया। देवी ने उसे आशीर्वाद दिया कि आज से तुम मेरे पुत्र हो। तुम मुझे सबसे प्यारे हो।
उस बालक का नाम रखा गणेश। गणेश ने पूछा, 'बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?'
देवी ने कहा, 'आज से तुम मेरे द्वारपाल हो। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी मेरे कक्ष में न आए। कोई भी हो।'
ऐसा कहकर देवी ने उसके हाथ में एक छड़ी भी दे दी, जिसे दंड कहते हैं। देवी ने गणेश को गले से लगाया और अपने द्वार पर नियुक्त कर दिया। इसके बाद गणेश जी देवी के कक्ष के बाहर पहरा देने लगे।
सीख
गणेश जी की जन्म कथा की खास बात ये है कि सबसे पहली और दृढ़ आज्ञा मां की मानी गई है। इस कथा से हमें दो संदेश मिलते हैं। पहला, संतान को माता की आज्ञा हर हाल में माननी चाहिए। दूसरा, मां का ये दायित्व होता है कि वह अपनी संतान को श्रेष्ठ संस्कार, श्रेष्ठ गुण दे। हर मां को अपनी संतान में अपने स्वभाव की अच्छी बातों की सीख देनी चाहिए।
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