हमारा पूरा पता क्या होगा? नाम, गली-मोहल्ले का नाम, शहर, जिला, राज्य, देश, महाद्वीप, ग्रह। इसमें नाम बदलते जाइए, तो यही पता आपके घर के आंगन में फुदकने वाली गिलहरी का होगा, पेड़ पर बैठी चिड़िया का भी और फूल पर मंडराती मधुमक्खी का भी। लेकिन हम इंसान केवल ख़ुद के स्वार्थ में सिमटे हुए हैं। क्या जानते हैं कि हमारा पता साझा करने वालों पर ही हमारा अस्तित्व निर्भर है?
‘यदि धरती की सारी मधुमक्खियां ख़त्म हो जाती हैं, तो मात्र चार साल में मानव जीवन समाप्त हो जाएगा।’ लंबे अरसे से अल्बर्ट आइंस्टीन का यह उद्धरण संपूर्ण विश्व में प्रचलित है। इसमें निहित प्रश्न अभी भी हमारे समक्ष है- क्या यह सच है कि मानव जीवन मधुमक्खियों पर निर्भर करता है? या मानव जीवन की गुणवत्ता मधुमक्खी परागण पर किस हद तक निर्भर करती है?
‘इंसेक्ट पोलीनेशन ऑफ कल्टीवेटेड क्रॉप प्लांट्स’ के लेखक एस.ई.एम.सी ग्रेगर ने 1976 में सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया था कि हमारे भोजन का एक-तिहाई हिस्सा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कीटों द्वारा परागण किए पौधों पर निर्भर करता है। यह बयान उस मशहूर कथन को प्रमाणित करता है, जिसके अनुसार, ‘हम जो खाना खाते हैं, उसका हर तीसरा निवाला मधुमक्खियों की वजह से ही है।’ यह तो सर्वविदित है कि मधुमक्खियां धरती पर सबसे अधिक परागण करती हैं। बादाम, काजू, पपीता, तरबूज, आम, खीरा और कपास जैसे 100 से भी अधिक आहार व फ़सलें मधुमक्खियों के कारण ही हम तक पहुंच पाती हैं। दूध व दूध के उत्पाद, जो कि हमारे भोजन का अहम हिस्सा हैं, मधुमक्खियों के लुप्त होने पर हमें प्राप्त नहीं हो सकते क्योंकि दूध का उत्पादन करने वाले पशु जो चारा व घास खाते हैं, उसकी पैदावार तब तक नहीं हो सकती, जब तक मधुमक्खियां परागण न करें।
‘जैव विविधता व पारिस्थितिकी तंत्र सेवा अंतर सरकारी विज्ञान नीति मंच’ के अनुसार विश्व के 90 प्रतिशत पौधे और 75 प्रतिशत फ़सलें पशु- पक्षियों के परागण पर ही आश्रित हैं। इसमें वे फ़सलें शामिल हैं, जिनसे जैव ईंधन, फाइबर, शिल्प, बिल्डिंग निर्माण सामग्री, दवाइयां तैयार होती हैं।
जानवरों के घर पर हमारा कब्ज़ा
धरती हम सभी जीवों का साझा घर है लेकिन मनुष्य ने अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल लोभ को पूरा करने में किया है। हमने जीव-जंतुओं के घरों पर कब्ज़ा जमाया है। धीरे-धीरे जम़ीन पर अपने पैरों को पसारते हुए हम कब जंगलों में पहुंच गए हमें ख़ुद पता न चला और जब सड़कों पर या रहवासी क्षेत्रों में हमने जानवरों को देखा तो हंगामा मचा डाला कि वे हमारे घर आकर हमें क्षति पहुंचा रहे हैं और दंड स्वरूप उन्हें या तो कैद कर डाला या मृत्यु के सुपुर्द कर दिया। हाथियों को पारिस्थितिकी का इंजीनियर भी कहा जाता है क्योंकि ये दूसरे जानवरों के लिए उचित स्थितियां बनाए रखते हैं। यही भूमिका कठफोड़वा भी निभाता है। मौजूदा हालात में हाथी भी उन प्राणियों की सूची में शामिल हैं, जिनके विलुप्त होने का ख़तरा है। 2017 की गणना के अनुसार, हमारे देश में अब सिर्फ़ 27,000 हाथी शेष हैं। हाथियों व अन्य वन्यजीवों के जीवन पर जलवायु परिवर्तन व वनों के विनाश से ख़तरा है। 2011 की गणना के अनुसार उत्तराखंड स्थित शिवालिक रिज़र्व से जुड़ा शिवालिक कॉरिडोर, जो कि हाथियों के आवागमन का रास्ता है, उसके आसपास 30,20,540 लोग रहते हैं। विकास के नाम पर इस कॉरिडोर को निरस्त करने का मामला आज भी विवादास्पद है। हाथी एक दिन में 190 लीटर पानी पीता है, जो कि उसे जल के किसी भी खुले स्रोत से मिल जाता है और हम हैं कि सिर्फ़ फैशन और कपड़ा उद्योग से ही 90% पानी को प्रदूषित कर देते हैं। यही प्रदूषित पानी जानवरों तक पहुंचता है।
हमारा उत्तरदायित्व है पक्षियों को बसाना
तितलियों व पक्षियों का भी परागण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। तोता, सनबर्ड जैसे कई पक्षी और चमगादड़ एक पौधे से दूसरे पेड़-पौधे पर पराग बांटते हैं। इनकी संख्या में आ रही कमी के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि इन्हें रहने के लिए उचित स्थान ही नहीं मिल पाता है। सुविधा व आधुनिकीकरण के लोभ में हम भरसक पेड़ काट चुके हैं। ऐसे में अब वो समय आ चुका है, जब प्रकृति के प्रति ज़िम्मेदारी प्रकट करते हुए हमें ऐसे तैयार पौधे अवश्य लगाना होंगे, जो आगे चलकर पेड़ बन जाएं और इन जीवों का बसेरा बन सकें। शहतूत, अंजीर, नीम, आम, अमरूद व गुड़हल के पेड़ों पर ऐसे कई पक्षी बसेरा करते हैं, जो परागण के लिए माध्यम हैं। इनमें बुलबुल, मैना, तोता, बसंता, धनेश, सनबर्ड, केशराज, सुनखी आदि पक्षी शामिल हैं। फूल वाले पौधों के परागण में तितलियों की भूमिका अहम है। तितलियों को बुलाने के लिए अपने घर पर सेज, मत्स्याक्षी, गेंदा, डहेलिया, सूरजमुखी, शेवंती, नरगिस व बसंती गुलाब के पौधे लगाएं। तितलियों के द्वारा इकट्ठा किए गए पराग से फल, सब्ज़ियां व फूल नए बीज तैयार करते हैं। पौधों की प्रजनन शक्ति का विकास भी तितलियों से ही होता है।
क्या हम सतत विकास की ओर हैं?
वर्तमान में देखने में आ रहा है कि लोग अपनी जीवन शैली में उपयोगितावादी के बजाय उपभोक्तावादी हो गए हैं। यह उपभोक्तावादी या विलासितापूर्ण जीवनशैली प्राकृतिक संसाधनों का ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग करवा रही है। विश्व की जनसंख्या ने एक वर्ष में कितने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया, कितने बनाए एवं कितनों में सुधार किया, इन सभी की गणना कर ग्लोबल फुट प्रिंट नेटवर्क ने ‘अतिदोहन दिवस’ की घोषणा की थी। वर्ष 1970 में अतिदोहन दिवस 29 दिसम्बर था, जो कि 2021 में 29 जुलाई को मनाया गया। इसका मतलब यह हुआ कि जो संसाधन हमें 12 महीनों में उपयोग करने थे वे हमने सात महीनों में ही इस्तेमाल कर डाले। वैश्विक स्तर पर की गई एक गणना अनुसार, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग 50 अरब टन होना चाहिए परन्तु हो रहा है 88 अरब टन। पर्यावरणविद् प्रो.टी.एन के अनुसार, सादगीपूर्ण जीवन अपनाने से ही सतत विकास संभव होगा।
मिनिमलिज़्म की अवधारणा
पिछले सालों में मिनिमलिज़्म की अवधारणा ने पंख पसारना शुरू किया है। इस अवधारणा का अर्थ है कि आवश्यक व अनावश्यक वस्तुओं में भेद करके कम से कम में जीवनयापन करना। जिस स्तर पर यह अवधारणा फैलनी चाहिए उसमें अभी कमी है, परन्तु फिर भी शुरुआत प्रसन्नता का विषय है। उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि हाल ही में हुए कांस फेस्टिवल में दो बार के ग्रैमी विजेता कलाकार रेड कार्पेट पर वे ही कपड़े पहनकर प्रस्तुत हुए जो उन्होंने ग्रैमी के दौरान पहने थे। कांस फेस्टिवल, जो फैशन व परिधानों के लिए भी प्रसिद्ध है, वहां कपड़े दोहराने के विषय में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘एक ही कपड़े को दो बार पहनने में कोई हर्ज नहीं है। मेरे इस कृत्य से पृथ्वी व प्रकृति को कम क्षति पहुंचेगी।’
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