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आज के दौर में और प्रासंगिक हो गई है 'राम राज्य' की धारणा

श्रीराम के राजतिलक को दर्शाती प्रसिद्ध पेंटर राजा रवि वर्मा की पेंटिंग।  - Dainik Bhaskar

श्रीराम के राजतिलक को दर्शाती प्रसिद्ध पेंटर राजा रवि वर्मा की पेंटिंग। 

'राम राज्य'! यह एक ऐसा शब्द है, जिससे सभी परिचित हैं। अलग-अलग विचारों और मतों से जुड़े विद्वान इस शब्द की अलग-अलग ढंग से व्याख्या करते हैं। कुछ का मानना है कि राम-राज्य एक असम्भव धार्मिक राज्य की कल्पना मात्र है। वहीं कुछ इस शब्द को इक्कीसवीं सदी की संभावना के रूप में परिभाषित करते हुए एक आदर्श राज्य के पर्याय के रूप में देख़ते हैं। आज हम ये समझने का प्रयास करेंगे कि आख़िर राम राज्य है क्या? इसका दर्शन क्या है, इसकी मान्यताएं क्या हैं और इसके परिणाम क्या हैं।

'राम-राज्य' दरअसल 'सुशासन' की अब तक की प्रचलित सर्वोत्तम परिभाषा है, इसलिए राम-राज्य को समझने से पहले हमें सुशासन को समझना चाहिए। 'सुशासन' एक बेहद सारगर्भित शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ 'शुभ शासन' या 'मंगलकारी शासन' के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने सुशासन की कुल आठ विशेषताएं स्वीकार की है जो भारतीय प्रशासन में हजारों सालों से विद्यमान रही हैं। ये विशेषताएं हैं : 1. विधि का शासन 2. समानता एवं समावेशन 3.भागीदारी 4. संवेदनशीलता 5. बहुमत 6. प्रभावशीलता एवं दक्षता 7. पारदर्शिता और 8. जवाबदेही। जब किसी समाज में ये तत्व अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाएं तो उस समाज को, उस शासन व्यवस्था को 'राम-राज्य' कहा जा सकता है।

मध्यकालीन भारत में सामंतवाद के पतन और विदेशी आक्रमणों के साथ ही सनातन संस्कृति, साहित्य और मान्यताओं को दूषित किया जाने लगा था। यह वह दौर था, जब टैक्स तक धार्मिक आधार पर लिए जाते थे। अत्याचार और कुशासन की अति उस स्तर को छू चुकी थी, जिसके बाद सामान्य व्यक्ति अपने शोषण को अपनी नियति मानने लगा था। ऐसे भीषण समय में गोस्वामी तुलसीदास 'नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं' कहकर अकाल, गरीबी और महामारी पर प्रबल प्रहार करते हैं और सर्वप्रथम राजाओं यानी शासकों को सचेत करते हुए कहते हैं, 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सोई नृप अवसि नरक अधिकारी।।' अर्थात जिस शासक के राज्य में जनता दुखी होगी, उसे अवश्य नरक जाना पड़ेगा।

इसके साथ ही सुशासन यानी राम-राज्य के परिणामस्वरूप जिस नवीन, पूर्ण चैतन्य समाज का निर्माण होता है, उसका वर्णन भी गोस्वामी तुलसीदास जी करते हुए कहते हैं-

'बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।'

अर्थात् राम-राज्य यानी सुशासन का प्रताप ये है कि कोई किसी का शत्रु नहीं है, सभी जन मिल-जुलकर रहते हैं। सामान्य जनमानस शारीरिक, मानसिक और दैविक विकारों से मुक्त हो चुका है। सभी स्वस्थ हैं, राम-राज्य में किसी की भी अल्पमृत्यु नहीं होती। कोई निर्धन नहीं है, कोई दुखी नहीं है, कोई अशिक्षित नहीं है, किसी के भी अंदर कोई अनैतिक लक्षण नहीं हैं।

इस विराट दर्शन को यदि वर्तमान संदर्भ में देखें तो 'राम-राज्य' लोकतंत्र की वह परिष्कृत अवस्था है, जहां कानून का शासन है, सामाजिक संवाद का स्तर इतना ऊंचा है कि कभी लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आती, स्वास्थ्य व्यवस्था तो अपनी सर्वोच्च क्षमता के साथ काम करती ही है, साथ ही लोग इतने संयमित हैं कि न कोई असमय बीमार पड़ता है और न ही कभी किसी की असमय मृत्यु होती है। रोजगार के समुचित साधन होने के कारण कोई निर्धन नहीं है, कोई दुखी नहीं है और किसी के अंदर कोई दुर्गुण नहीं है।

इससे भी आगे गोस्वामी जी 'दोहावली' में कर व्यवस्था के नियमन के संदर्भ में कहते हैं कि एक आदर्श शासक को ऐसे कर वसूलना चाहिए, जिससे नागरिकों पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े, किंतु जब उसी कर के माध्यम से शासन विकास कार्य करवाए तो चारों ओर खुशहाली छा जाए।

'राम-राज्य' की इस व्यापक परिभाषा को यदि आज के समाज में चरितार्थ कर लिया जाए तो न कहीं कोई विवाद होगा और न ही कहीं कोई अशांति। महात्मा गांधी भी इसी राम-राज्य के प्रबल समर्थक थे। अब आप ही निर्णय कीजिएगा कि राम-राज्य कोई असम्भव धार्मिक कल्पना है या इक्कीसवीं सदी की समस्त चिंताओं, विद्रूपताओं को सम्भावनाओं में परिवर्तित कर देने वाला एक अप्रतिम यथार्थ।

श्रीराम के राजतिलक को दर्शाती प्रसिद्ध पेंटर राजा रवि वर्मा की पेंटिंग।

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