इंदौर:900 साल पुरानी पटोला साड़ी भारतीय कला और संस्कृति का अद्भुत उदाहरण है। भारतीय संस्कृति की यह बानगी इंदौर में लगाई गई एक प्रदर्शनी में देखने को मिली। यहां आए गुजरात के कारीगरों और व्यापारियों से बात कर हमने जाना कि आखिर क्या खासियत है पटोला साड़ियों में कि इनके लिए खरीदार 10 लाख रुपए तक देने को सहज रूप से तैयार हो जाते हैं। पटोला की पॉपुलरिटी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुर्ते पायजामे के साथ दुपट्टे की तरह और जोधपुरी सूट में पॉकेट स्क्वेयर के तौर पर पटोला कारीगरी ही पसंद करते हैं। कई बार उन्हें पटोला शॉल ओढ़े देखा गया है और वे इस कारीगरी का प्रचार प्रसार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी करते हैं।
कारीगरों ने बताया कि एक दौर ऐसा था जब गुजरात के पाटन में 700 परिवार पटोला साड़ियां बनाने का काम करते थे पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब आर्थिक मंदी का दौर आया तो इन साड़ियों का सप्लाय कम हो गया और धीरे-धीरे इनके कारीगर भी पेट पालने के लिए दूसरे कामकाज करने लगे। आज हालात ये है कि अब इन साड़ियों को बनाने वाले बस 3 ही परिवार बचे हैं।
कम सप्लाय और ज्यादा डिमांड एक बड़ी वजह है कीमतें बढ़ने की
दूसरी वजह यह कि सिल्क पर पटोला कारीगरी वाली एक साड़ी को बनने में 8 महीने का समय लग जाता है। ताना-बाना बुनाई से लेकर टाई-डाई तक हाथ से ही की जाती है। आजकल मशीन से बनने वाली वाली साड़ियों में पहले कपड़ा तयार होता है फिर उनमें डिजाइन के अनुसार डाई का काम करते हैं लेकिन पटोला साड़ी की खासियत है कि उनमें पहले धागा डाई किया जाता है फिर हाथों से उन्हे अलग-अलग आकृतियों के अनुसार बुना जाता है। हर साड़ी चूंकि हाथ से बनाई जाती है इसलिए यूनीक होती है। इसलिए उसकी कीमत बढ़ जाती है।
एक दिन में 8 इंच पर ही हो पाता है काम
पटोला साड़ियां डबल इकत्त टेक्निक से बनती हैं। यानी आगे और पीछे से एक समान होती है और इन्हें दोनों तरफ से पहना जा सकता है। पूरे दिन काम करने के बाद भी साड़ी के सिर्फ 6 से 8 इंच हिस्से का ही काम हो पाता है। यह साड़ियां जैसे-जैसे बुनी जाती हैं वैसे-वैसे इनमें आकृतियां भी बनती जाती है। 4 लोग मिलकर एक साड़ी तयार करते हैं। जिसमे दो लोग डाई के लिए और दो लोग वीविंग के लिए होते हैं। इन साड़ियों की लाइफ 100 साल से भी ज्यादा होती है। इनका कपड़ा, डिजाइन और चमक सालोंसाल बरकरार रहती है। यहां तक कि कई गुजराती परिवारों में तो विरासत की तरह पटोला साड़ियां भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं।
अनुभव हो तो 60 हज़ार तक मिलती है तनख्वाह
ये साड़ियां बनाने वाले कारीगरों की तनख्वाह 12 हज़ार से 60 हज़ार तक होती है जो उनके अनुभव पर निर्भर करती है। इंदौर में लगी दो दिनी प्रदर्शनी में अहमदाबाद से आए सालवी परिवार ने पाटन पटोला से बनी साड़ियां, बैग्स, दुपट्टे, पॉकेट स्क्वेयर, स्टोल, बंधेज के दुपट्टे और एक इकत्त व सेमी इकत्त की साड़ियां प्रदर्शित की। इनकी कीमत 15 लाख रुपए तक थी।
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