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अगले साल यानी 2023 में उज्जैन में भगवान महाकाल की सावन महीने 10 सवारी निकाली जाएंगी

अगले साल यानी 2023 में उज्जैन में भगवान महाकाल की सावन महीने 10 सवारी निकाली जाएंगी। ऐसा अधिक मास के कारण होगा। भादो के महीने के साथ अधिक मास भी लग रहा है, इस कारण सवारियों की संख्या बढ़ जाएगी। इसमें अधिक मास की चार, सावन की चार और भादो की दो सवारियां शामिल हैं। 19 साल बाद ये संयोग बन रहा है। अमूमन हर साल सावन के महीने भगवान महाकाल की चार सवारियां निकाली जाती हैं। इसके अलावा दो सवारी भादो महीने को मिलाकर 6 सवारी निकलती हैं।

8 अगस्त को सावन के आखिरी सोमवार भगवान महाकाल की शाही सवारी निकली। अब भादो की दो सवारियां निकाली जाएंगी।

अगले साल 10 सवारियां निकलेंगी, तब नए स्वरूप कैसे आएंगे...

अगले साल उज्जैन के अन्य महादेव मंदिरों के स्वरूप को भी छठी सवारी के बाद सिलसिलेवार तरीके से शामिल किया जाएगा। बाकी क्रम यथावत रहेगा। पहली सवारी 10 जुलाई, दूसरी 17 जुलाई, तीसरी 24 जुलाई, चौथी 31 जुलाई, पांचवीं 7 अगस्त, छठी 14 अगस्त, सातवीं 21 अगस्त, आठवीं 28 अगस्त, नौवीं 4 सितंबर, दसवीं और अंतिम शाही सवारी 11 सितंबर को निकाली जाएगी।

भादों में इसलिए निकाली जाती हैं दो अतिरिक्त सवारी

महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार होलकर परिवार ने कराया था। यहां सिंधिया स्टेट द्वारा परंपरा निर्वहन होता है। दक्षिणी और महाराष्ट्रीयन परिवार के लोग अमावस्या से अमावस्या तक श्रावण को मानते हैं। इसी के चलते भादों के महीने में दो सोमवार भी सावन में ही गिने जाते हैं।

महाकाल की सवारी हर साल सावन महीने में निकाली जाती है।
महाकाल की सवारी हर साल सावन महीने में निकाली जाती है।

ऐसे शुरू हुई महाकाल की यात्रा

जानकार बताते हैं कि सिंधिया वंशजों के सौजन्य से महाराष्ट्रीयन पंचांग के अनुसार, दो या तीन सवारी ही निकलती थीं। एक बार उज्जयिनी के प्रकांड ज्योतिषाचार्य पद्मभूषण स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास के निवास पर कुछ विद्वानों के साथ तत्कालीन कलेक्टर एमएन बुच भी बैठे थे। आपसी विमर्श में सहमति से तय हुआ कि क्यों न इस बार सावन के आरंभ से ही सवारी निकाली जाएं। सवारी निकाली गईं। उस समय प्रथम सवारी का पूजन सम्मान करने वालों में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह, राजमाता सिंधिया और गणमान्य नागरिक मौजूद रहे। इस तरह खूबसूरत परंपरा का आगाज हुआ।

सिंधिया परिवार ने शुरू की परंपरा

सिंधिया परिवार की ओर से शुरू की गई ये परंपरा आज भी जारी है। पहले महाराज स्वयं शामिल होते थे। बाद में राजमाता नियमित यात्रा में शामिल होती रहीं। महाकालेश्वर मंदिर में एक अखंड दीप भी आज भी उन्हीं के सौजन्य से प्रज्ज्वलित है।

पहली सवारी में पालकी में निकलने के बाद मनमहेश स्वरूप को हाथी पर विराजित किया जाता है। इसके अलावा कोई स्वरूप शामिल नहीं होता है। यह निराकार स्वरूप कहा जाता है
पहली सवारी में पालकी में निकलने के बाद मनमहेश स्वरूप को हाथी पर विराजित किया जाता है। इसके अलावा कोई स्वरूप शामिल नहीं होता है। यह निराकार स्वरूप कहा जाता है
दूसरी से लेकर सातवीं सवारी तक भगवान चंद्रमौलेश्वर स्वरूप पालकी पर होता है। ये स्वरूप सबसे ज्यादा निकाला जाता है। पहली सवारी में निकले मनमहेश स्वरूप को इसके बाद हाथी में विराजित कर भ्रमण कराया जाता है। इसे गंगाधर और विषधर रूप में माना जाता है।
दूसरी से लेकर सातवीं सवारी तक भगवान चंद्रमौलेश्वर स्वरूप पालकी पर होता है। ये स्वरूप सबसे ज्यादा निकाला जाता है। पहली सवारी में निकले मनमहेश स्वरूप को इसके बाद हाथी में विराजित कर भ्रमण कराया जाता है। इसे गंगाधर और विषधर रूप में माना जाता है।
तीसरी सवारी में भगवान का शिव तांडव रौद्र रूप शामिल होता है। इसमें भगवान गरुड़ पर सवार रहते हैं।
तीसरी सवारी में भगवान का शिव तांडव रौद्र रूप शामिल होता है। इसमें भगवान गरुड़ पर सवार रहते हैं।
चौथी सवारी में उमा महेश के स्वरूप के दर्शन होते हैं। इस स्वरूप में शिव पार्वती को नंदी पर सवार किया जाता है।
चौथी सवारी में उमा महेश के स्वरूप के दर्शन होते हैं। इस स्वरूप में शिव पार्वती को नंदी पर सवार किया जाता है।
भादों की पहली और महाकाल की पांचवीं सवारी सप्त धान स्वरूप में भगवान महाकाल दर्शन देते हैं। यह स्वरूप बैलगाड़ी पर सवार होता है। सप्त धातु से बने विग्रह के रूप में दर्शन देते हैं, जिसमें भगवान की प्रतिमा लोहा, तांबा, पीतल, सोना, चांदी, अभ्रक और अन्य वस्तुओं से मिलकर बनती है। इसे जन्म और मृत्यु से जोड़कर देखा जाता है।
भादों की पहली और महाकाल की पांचवीं सवारी सप्त धान स्वरूप में भगवान महाकाल दर्शन देते हैं। यह स्वरूप बैलगाड़ी पर सवार होता है। सप्त धातु से बने विग्रह के रूप में दर्शन देते हैं, जिसमें भगवान की प्रतिमा लोहा, तांबा, पीतल, सोना, चांदी, अभ्रक और अन्य वस्तुओं से मिलकर बनती है। इसे जन्म और मृत्यु से जोड़कर देखा जाता है।
भादों की दूसरी और आखिरी सवारी में होलकर रूप में दर्शन होते हैं। यह स्वरूप भी बैलगाड़ी पर सवार होता है। यह होलकर स्वरूप कहा जाता है। मान्यता है कि राजघराने से अहिल्या माता दान करती थीं। वह शिवभक्त होने के कारण दान की प्रकृति सिखाती हैं। इसके बाद दो अलग-अलग शिव मुखारविंद होते हैं।
भादों की दूसरी और आखिरी सवारी में होलकर रूप में दर्शन होते हैं। यह स्वरूप भी बैलगाड़ी पर सवार होता है। यह होलकर स्वरूप कहा जाता है। मान्यता है कि राजघराने से अहिल्या माता दान करती थीं। वह शिवभक्त होने के कारण दान की प्रकृति सिखाती हैं। इसके बाद दो अलग-अलग शिव मुखारविंद होते हैं।

महाकाल महाराज के रूप में साक्षात करते हैं निवास

सावन महीने में महाकाल की नगरी उज्‍जैन में भक्‍तों की भारी भीड़ लगती है। उज्जैन सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी अवन्तिका के रूप में भी इतिहास के पन्‍नों में दर्ज है। प्राचीन काल में इस शहर को अवन्तिका के नाम से जाना जाता था। मान्यता है कि आज भी उज्जैन में भगवान शिव राजाधिराज महाकाल महाराज के रूप में साक्षात निवास करते हैं।

ओंकारेश्वर में नाव पर तो त्रयंम्बकेश्वर में पालकी में निकलती है सवारी

देशभर के सभी शिव मंदिरों में सवारी निकालने की परंपरा है, जिसमें सबसे शाही सवारी भगवान महाकाल की निकाली जाती है। ओंकारेश्वर मंदिर में नौका विहार नर्मदा नदी में भगवान को कराया जाता है। इसके साथ ही नासिक के त्रयंम्बकेश्वर मंदिर में केवल पालकी निकाली जाती है, जिसमें पुलिस बल का जवान भगवान को सलामी देता है। उन्हें राजा स्वरूप में शहर भ्रमण कराया जाता है।

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