नाभि में लगे हुए श्रीराम के तीर रावण को मृत्यु के द्वार तक धकेल चुके थे। युद्ध समाप्त हो चुका था। लेकिन श्रीराम जानते थे कि रावण आज अकेले दम नहीं तोड़ेगा, उसके साथ ज्ञान और पांडित्य का अनंत आकाश भी कांच की तरह चटककर टूट जाएगा। तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा, 'अनुज, इस सृष्टि का प्रकांडतम विद्वान अंतिम सांस लेने वाला है। जाओ, उस से अनुरोध करो कि वो संसार से जाते-जाते तुम्हारी झोली में कुछ ज्ञान-रत्न डाल दे।'
लक्ष्मण गए, रावण से ज्ञान निवेदन किया। रावण ने सुना तो लेकिन कहा कुछ नहीं, बस मुंह फिरा लिया। लक्ष्मण उत्तेजित हो गए। वापस श्रीराम के पास आए और बोले, 'प्राण जाने को हैं, लेकिन इसका अहंकार नहीं जा रहा।' राम ने कहा, 'क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि तुमसे मुंह फिराना ही रावण का पहला ज्ञान था। तुम सिरहाने खड़े होकर गुरु से ज्ञान मांग रहे थे। शिष्य का स्थान गुरु के चरणों में है, उसके सिर पर नहीं।' इस बार लक्ष्मण रावण के पैरों के पास खड़े हुए और सृष्टि के उस सबसे बड़े ज्ञानी ने उन्हें सफल जीवन के कुछ सूत्र दिए। ये सूत्र इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये उस व्यक्ति के मुख से निकले हैं, जिसने जीवन में अपने पुरुषार्थ से सब कुछ पा लिया और फिर अपने अहंकार से सब कुछ खो दिया।
1. शुभस्य शीघ्र : रावण ने लक्ष्मण से कहा, 'हे लखन, मन का स्वभाव है सत्कर्मों को स्थगित करते रहना और दुष्कर्मों की ओर आकर्षित हो जाना। सत्कर्म वो है जो कल्याण, कृपा और करुणा की भावना से किया जाए। दुष्कर्म, जिसमें इन तीनों का अभाव हो। कई बार मुझे विचार आया कि मैं सीता को ससम्मान लौटा दूं, लेकिन मेरा मन इस सत्कर्म को टालता रहा। यदि मैंने अपनी आत्मा में उठने वाला सत्कर्म का पहला संगीत सुन लिया होता तो मरघट का ये सांय-सांय करता हुआ सन्नाटा सुनने की नौबत नहीं आती। 'शुभस्य शीघ्रम' यानी शुभ करने का विचार आए तो उसे कभी स्थगित मत करना। उसी क्षण 'विचार' को 'कार्य' में बदल देना, वरना मन अपनी चाल चल देगा और सत्कर्म की वो विद्युत रेखा जो आत्मा में कौंधी है, विलुप्त हो जाएगी।
2. कोई कमजोर नहीं है: कौन राम? वही वनवासी, जो जंगल-जंगल मारा-मारा फिर रहा है? वही अयोध्या का राजकुमार जिसके पास न घर है न घाट, न हाथी-घोड़े न राज-पाट। वो दशानन का सामना करेगा? दशानन, जो इंद्र का सिंहासन जीत चुका है, ऐसे महाअसुर से वो साधारण मानव टकराएगा? असम्भव! लेकिन हुआ क्या, असंभव संभव हो गया। वो साधारण मानव आज विजय-तिलक लगाकर सूर्य को अर्घ्य दे रहा है और इस महाअसुर का सूर्य अस्त हो रहा है, क्योंकि मैंने शत्रु को कमज़ोर समझने की भूल कर दी। और इसकी आधारशिला तो उसी दिन रख दी गई थी, जब मैंने जगतपिता से अमरत्व का वरदान मांगा था। खुद को देवता, असुर, पशु, पक्षी, यक्ष, गंधर्व सभी से सुरक्षित कर लिया था, लेकिन मैंने मनुष्य से सुरक्षा नहीं मांगी थी, क्योंकि मैंने मनुष्य को इस लायक समझा ही नहीं। मेरा यही अहंकार मुझे ले डूबा।
3. राज़ को राज़ रहने दो :मैं तुमसे अपने मन का गहरा भेद बांट रहा हूं, लेकिन तुम ये भेद किसी और से न कहना। इससे अधिक हास्यास्पद बात कोई और हो सकती है क्या? अगर तुम ख़ुद अपना राज़, राज़ नहीं रख पाए तो कोई और क्या रखेगा? यही तो भूल हुई मुझसे। मैं अजेय था, दुर्जेय था, लेकिन यह भेद कि मेरी नाभि में अमृत है, मैं छिपा नहीं पाया और इसी भेद के बल पर मेरे ही भाई ने मेरे सर्वनाश का शंखनाद कर दिया। ये मेरा अंतिम सूत्र है, इसे कभी मत भुलाना। तुम्हारा वो भेद, जिस पर तुम्हारी प्रतिष्ठा टिकी हो, तुम्हारी मर्यादा और तुम्हारा जीवन-मरण टिका हो, वह स्वयं अपने आप से भी मत दोहराना।
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