- कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीतने वाले बजरंग पूनिया ने ऐसे की थी कुश्ती की शुरुआत, जब वो हारे तो उनके करीबियों ने उन्हें जो बातें समझाने की कोशिश की, वो ही बातें...
"पापा की इच्छा थी कि उनके दोनों बच्चों में से कोई एक तो पहलवानी करे। मैं अपने भाई के साथ सिर्फ इसलिए अखाड़े जाता था कि स्कूल न जाना पड़े। पहली क्लास में हाजिरी लगाकर स्कूल से गायब हो जाता था। पापा ने सपोर्ट किया, मैं स्कूल नहीं जाता था तो वो कभी नहीं पूछते थे। वो चाहते थे कि मैं कुछ बनकर दिखाऊं, इसके लिए वो हर हद तक मदद देते थे। पहली बार ‘छारा’ के अखाड़े में भी वो ही लेकर गए थे। मुझे अखाड़े की मिट्टी की खुशबू बेहद पसंद थी। इस मिट्टी में तेल, हल्दी डाली जाती है... न जाने क्या-क्या मिलाया जाता है। ये चीजें मिट्टी से लगाव पैदा करती हैं। शुरुआत में जब मैं अखाड़े जाता था, तो इस मिट्टी में पानी छिड़ककर ‘पल्टी’ लगाता था। भारी फर्शी को रस्सी से बांध पूरे अखाड़े में फेरना, पल्टी लगाना होता है। इस तरह रोज अखाड़े को तैयार करता था। बच्चों के आने से पहले ये काम रोज करता था। सात की उम्र से ट्रेनिंग शुरू की, फिर जल्द ही कुश्ती लड़ने लगा। एक दिन में आठ-दस कुश्तियां लड़ता था। इन कुश्तियों को देखने के लिए सैकड़ों लोग जमा होते थे। जब आप अच्छी कुश्ती लड़ते हैं तो यही लोग रुपए देते हैं, कभी पांच तो कभी दस। ये पैसे मेरे लिए बहुत होते थे। हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, ऐसे में यह कमाई काफी जरूरतें पूरी कर देती थी।
ईमानदार मेहनत का फल हमेशा मिलता है
∙ मेरा यकीन मेरी किस्मत में है, इसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता।
∙ सुधार तो निरंतर चलता है, करियर के आखिरी दिन तक मैं सीखता रहूंगा।
∙ मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता, मेहनत की जगह केवल कड़ी मेहनत ही ले सकती है।
∙ कड़ी मेहनत ही मेरे हिसाब से बेस्ट टैलेंट होता है।
∙ खुद को मोटिवेट करना तब ही सीख पाएंगे, जब हार से सामना होगा।
एक बार मैं हरियाणा की स्टेट चैम्पियनशिप में हार गया। इससे घोर निराशा हुई। जब आप निराश होते हैं, उससे मुश्किल वक्त कोई नहीं होता। मरीज अगर निराश है तो उसकी जान कोई डॉक्टर नहीं बचा सकता। यह निराशा के साथ मेरा पहला सामना था। इस हार के कारण मेरा नेशनल में सिलेक्शन नहीं हुआ था। निराशा, हताशा... मुझ पर बुरी तरह हावी हो गई थी। मेरी यह हालत बचपन के कोच विरेंदर दलाल ने समझी। उन्होंने समझाया कि आगे बढ़ने के लिए हार भी जरूरी है। हार से ही इंसान खुद को जानता है, अपनी कमजोरियों से रूबरू होता है। बड़े लक्ष्य पर निगाह होना जरूरी है, राह में हार-जीत के मौके तो आते रहेंगे।
हारना किसी को पसंद नहीं है। सबको बुरा लगता है कि इतनी कड़ी ट्रेनिंग के बाद आप हार रहे हो। मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि बचपन से मैं जिनके साथ भी रहता आया हूं, दोस्त, कोच, घरवाले... उन्होंने हर वक्त मुझे मोटिवेट ही किया कि- सारी चिंताएं छोड़, खूब मेहनत कर। यह याद रखिए, ईमानदार मेहनत का फल हमेशा मिलता है। देर हो सकती है, लेकिन मिलेगा जरूर।
मैं जब भी कोई कुश्ती हारा तो उन्हीं लोगों ने समझाया कि देख क्या कमी रह गई, उसमें सुधार कर। हार से मिली सीख को भूलना ही सबसे बड़ी भूल है। हार से सीख लेकर ही आप उससे मुक्त हो पाओगे। वरना वो हार पीछा करती रहेगी। सीखते रहने के लिए हार जरूरी है।'
(विभिन्न सोशल मीडिया इंटरव्यू में रेसलर बजरंग पूनिया )
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