- जीवन में कुछ मात्रा में दु:ख की उपस्थिति अवश्यम्भावी है, लेकिन राम का अनुसरण करेंगे तो दृष्टि सकारात्मक रहेगी और ध्यान सुखों पर।
राम शब्द का जन्म ही रम् धातु से हुआ है जिसका अर्थ होता है रमण। जो प्रत्येक के हृदय में रमण (निवास) करते हैं वे राम हैं। भक्त जिसमें मन रमाते हैं वे हैं राम। राम का अर्थ अपार्थिव सुंदरता भी होता है अर्थात जिनके सौंदर्य का वर्णन करने में देवता भी सक्षम नहीं हैं। ‘राम’ शब्द के संदर्भ में स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
‘करऊं कहा लगि नाम बड़ाई।
राम न सकहि नाम गुण गाई॥'
स्वयं राम भी ‘राम’ शब्द की व्याख्या नहीं कर सकते, ऐसा राम नाम है। राम शब्द को दो बार राम-राम बोलने पर वह शब्दों की अंकगणितीय संरचना को भी पूर्ण कर देता है और पूर्ण ब्रह्म के मात्रिक गुणांक 108 को अभिव्यक्त करता है। हिंदी वर्णमाला में ‘र’ 27वां अक्षर है। ‘आ’ की मात्रा दूसरा अक्षर और ‘म’ 25वां, इसलिए सब मिलाकर जो गुणांक बनता है वह है 54 और राम-राम कहने से 108 हो जाता है। राम तो रावणस्य मरणं राम को भी कहा जाता है जिसका अर्थ है कि रावण के रूप में व्याप्त बुराई को राम के रूप में रमण करने वाली भक्ति का संचार कर समाप्त किया जा सकता है।
राम और रावण ऐसे प्रतीक, संप्रतीक हैं जो विरोधाभासी दिखाई देते हैं लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो यही विरोधाभास परस्पर पूरक लगता है। सुख भी इसलिए सुख है क्योंकि दु:ख है और दु:ख भी इसलिए दु:ख है क्योंकि सुख है। उपनिषद् में कहा गया है कि जीवन खेल है और इसे खेल की तरह से लेना ही बुद्धिमत्ता है। हम जब जीवन और माया से अधिक जुड़ते हैं तो वही सब हमें भार लगने लगता है। राम हमें सीधा संदेश देते हैं कि अच्छाई और सुख की प्रधानता से भरा जीवन है जिसमें कुछ मात्रा में ही रावण, कैकई और मंथरा रूपी दु:ख हैं। जब हम केवल दु:ख को ही जीवन मान लेते हैं तो अवसाद प्रमुखता में बाहर आ जाता है। सृष्टिकर्ता ने हरेक के जीवन में रावण, कैकई और मंथरा जितना ही दु:ख लिखा है, उतना ही जितना राम के जीवन में था।
मानव के लिए मानक
राम का जीवन हमारे लिए एक मानक है जहां से जीवन को आधार मिलना प्रारंभ होता है। उनकी रीति-नीति कालातीत है। उनका संपूर्ण जीवन किसी भी युग में प्रासंगिक है। राम का बचपन बताता है कि सबके हृदय में स्थान प्राप्त करने के लिए अयोध्या जैसा आधार होना चाहिए। अयोध्या का अर्थ है जहां द्वंद्व, मनभेद, लोभ, संकुचित विचार नहीं हैं। क्योंकि इससे परे ही मर्यादा पुरुषोत्तम जैसी नींव का निर्माण हो सकता है। बालक की भांति अपने मान-अपमान को भूलने से जीवन में सरलता आती है। बालक के समान निर्मोही एवं निर्विकारी बनने पर शरीर अयोध्या बनेगा।
सरयू नदी उस नाद का प्रतीक है जो बहुत प्राचीन भी है और उसी समय उसमें जो बह रहा पानी है वह बिल्कुल मौलिक है, नूतन है। हम प्राचीन भी हैं और नव-नूतन भी। जिस वंशावली का हम प्रतिनिधित्व करते हैं वह पुरातन है और आज जो हम श्वास ले रहे हैं वह नूतन है।
राम में असामयिक क्रोध का अभाव है इसलिए उनके निर्णय यथायोग्य, समायनुकूल, श्रेष्ठ हैं। जब राम विनयपूर्वक सागर से रास्ता मांगते हैं तो लक्ष्मण कहते हैं कि आपके पास अद्भुत शक्ति है जिससे आप एक पल में सबकुछ बदल सकते हैं। तब राम उत्तर देते हैं कि शक्ति तभी फलीभूत होती है जब कोई शांत है। जो काम शांति से हो रहा है उसके लिए शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है। राम की मित्रता के मायने अलग ही हैं। जो किसी दु:खी मित्र को देखकर दु:खी हो या फिर उसके सुख में सुख महसूस करे, नि:स्वार्थ सेवा का भाव रखे वही जीवन में महत्वपूर्ण है और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकता है।
राम के द्वारा सुग्रीव से इस तरह की दोस्ती बताती है कि अपने सीता विरह के दु:ख को भुलाकर जो दूसरे के विषय में सोचता है उसके बारे में प्रकृति स्वयं सोचने लगती है।
जब भी दु:खी हों तो बाहर निकलकर दूसरों की सेवा, सहयोग करने से हमारे दु:ख हल्के हो जाते हैं और ईश्वर स्वयं हमारे द:ुख दूर करने के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं।
अपि च स्वर्णमयी लंका,
लक्ष्मण मे न रोचते।
राम उस बात को भी स्थापित करते हैं कि यदि मन ठीक नहीं है तो दुनिया की सारी दौलत भी फीकी लगेगी और मन श्रेष्ठ है तो एक साधारण घर भी उत्साह का कारण बन जाएगा।
राम का जीवन पर्याय है उस आदर्श जीवन का जो हर एक मानव के लिए अनिवार्य है।
राम के जीवन में उतरने से ही कैकई, मंथरा और रावण रूपी लोभ, मोह और क्रोध का अंत हो सकता है।
सहस्रनाम बस राम
एक प्रसंग है जिसमें पार्वती ने महादेव जी से पूछा, ‘आप हरदम क्या जपते रहते हैं?’ उत्तर में महादेव जी विष्णुसहस्रनाम कह गए। अंत में पार्वती जी ने कहा, ‘ये तो आपने सहस्र नाम कह दिए। इतना सारा जपना तो सामान्य मनुष्य के लिए कठिन है। कोई एक नाम कहिए जो सहस्रों नामों के बराबर हो और उनके स्थान पर जपा जाए।’ तब महादेव जी बोले-
‘राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने।।’
हे सुमखि! रामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा राम-राम-राम, इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूं।
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