- फाग जैसा रंगमय उत्सव मनुष्य की उत्सवधर्मिता का शिलालेख है। मदनोत्सव से लेकर आज की होली तक यात्रा कर आया यह वासंती उत्सव इतिहास की लीक पर भिन्न रूपों में मौजूद रहा है। न केवल हिंदू राज्यों में बल्कि सल्तनत काल और निकट अतीत के ब्रितानिया राज में भी यह त्योहार ख़ासा लोकप्रिय था। भला रंगों में सराबोर होना किसे न भाएगा!
मानव प्रारम्भ से ही उत्सवप्रिय प्राणी रहा है, जो ख़ुशियां मनाने और इन ख़ुशियों के आदान-प्रदान का कोई भी मौक़ा चूकना नहीं चाहता था। इन शुरुआती उत्सवों और कला की निशानियां हम पत्थरों और शैलाश्रयों में पाते हैं। भीमबेटका, जोगीमारा व अजंता-एलोरा की गुफाएं जैसे स्थल मनुष्य की उत्सवधर्मिता और रंगप्रियता के साक्षी हैं।
इनके रंगीन शैलचित्र कहीं न कहीं मानव के उस उत्सव की ओर भी इशारा भी करते हैं, जब वे प्रतिकूल मौसम के बदलने के बाद अनुकूल मौसम के आने पर ख़ुश होते थे। इनमें वसंत भी हो सकता है, जिसमें प्रकृति अपना शृंगार करती है। वसंत की ख़ूबियों के कारण ही इस मौसम को हमारे प्राचीन ऋषियों और साहित्यकारों ने कामदेव और रति की उपासना के पर्व -‘मदनोत्सव' का रूप प्रदान किया था। इस मौसम में वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की उपासना के साथ रति और कामदेव की उपासना के गीत भी लोक में विकसित हुए।
साहित्य में मदनोत्सव की धूम
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि वसंत पंचमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हृदय में प्रेम का संचार किया था और तभी से इस दिन को मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। एक माह के इस उत्सव का समापन होली के उल्लास के साथ होता है।
मदनोत्सव का उल्लेख कालिदास ने अपने ग्रंथ ‘ऋतुसंहार' के छठे सर्ग में किया है। संस्कृत नाटक ‘कामदेवानुमान उत्सव' में भी इसकी चर्चा मिलती है। इस उत्सव में कामदेव का जुलूस निकाला जाता था। भवभूति के ग्रंथ ‘मालती माधव' में भी मदनोत्सव की चर्चा की गई है जिसमें कामदेव का मंदिर बनाया जाता था। कामशास्त्र में सुवसंतक नाम के उत्सव का भी ज़िक्र मिलता है।
गुप्तकालीन एक अन्य ग्रंथ शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक में नायिका वसंतसेना ऐसे ही एक जुलूस में भाग लेती है। हर्षचरित में भी मदनोत्सव का उल्लेख है। भविष्यपुराण में वसंत के दौरान कामदेव व रति की मूर्तियों की स्थापना तथा उनकी पूजा-अर्चना करने का वर्णन मिलता है। ऐसा साहित्यिक विवरण मिलता है कि वसंतोत्सव/मदनोत्सव के एक महीने के उत्सव के दौरान युवक-युवतियां अपने मनपसंद जीवनसाथी का चुनाव करते थे, जिसे तत्कालीन समाज मान्यता भी देता था। मदनोत्सव के समय रानियां आभूषणों से सुसज्जित होकर व पैरों में महावर लगाकर अशोक वृक्ष पर अपने बाएं पैर से हल्का आघात करती थीं, जिससे अशोक के पुष्प खिल उठते थे, इस क्रिया का एक विशेष नाम ‘अशोक दोहद' के रूप में मिलता है।
मदनोत्सव से होलिकोत्सव
वसंतोत्सव माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी से प्रारम्भ होकर होली पर्व के उल्लास के साथ समाप्त होता है। माना जाता है कि वसंत ऋतु का यह प्राचीन मदनोत्सव ही पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल तक आते-आते होली के रूप में रूढ़ हुआ है। इसकी कथाएं पुराणों में हिरण्यकशिपु, होलिका तथा प्रह्लाद से सम्बंधित हैं।
मध्ययुगीन कृष्ण-लीलाओं का साहित्य होली के रंगों से समृद्ध है। विजयनगर के हम्पी में सोलहवीं सदी का एक चित्रफलक है, जिसमें होली का मनोरम दृश्य उकेरा गया है। इसमें राजदम्पती, राजकुमार और राजकुमारियां, दासियों के संग पिचकारियों से होली खेल रहे हैं। इसी काल का एक चित्र अहमदनगर का है जिसमें ‘वसंत-रागिनी' मनाया जा रहा है जो कि होली का ही एक रूप है। इसमें झूले के साथ नृत्य-गीत और पिचकारियों का चित्रण है।
मेवाड़ की एक कलाकृति में तत्कालीन महाराणा दरबारियों के साथ चित्रित हैं, जहां दरबार के बीचों-बीच रंगों का कुंड रखा गया है और नृत्यांगना नृत्य पेश कर रही है। बूंदी शैली के एक चित्र में राजा हाथी दांत के सिंहासन पर बैठा है, जिसके गालों पर महिलाएं गुलाल लगा रही हैं।
सल्तनत काल में होली
अल बेरूनी ने भी अपनी ‘किताब-उल-हिंद' में चैत्र पूर्णिमा के वहंद (वसंत) उत्सव का जि़क्र किया है जो महिलाओं का त्योहार है। इस दिन महिलाएं ख़ूब सज-संवर के आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने पतियों से उपहार प्राप्त करती थीं।
इसके बाद आने वाले मुस्लिम लेखकों/कवियों ने होली खेलने का जि़क्र हिंदू-मुसलमान दोनों वर्गों में बताया है। होली का वर्णन विशेष रूप से अमीर खुसरो, रसख़ान, नज़ीर अक़बराबादी, महजूर लखनवी, शाह नियाज़ आदि की रचनाओं में मिलता है। सल्तनत काल में मोहम्मद बिन तुग़लक पहला सुल्तान था जिसने होली खेली थी।
होली के रोचक क़िस्से मुग़ल काल में ख़ूब सुनाई पड़ते हैं। एक ऐसा ही चित्र अलवर संग्रहालय में है जिसमें जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली का एक नया मुग़लिया अंदाज़ सामने आता है जिसे तत्कालीन लेखकों ने ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) नाम दिया है।
मुग़लिया होली अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र तक यात्रा करती है जिन्हें उनके मुस्लिम मंत्री तक रंग लगाते थे। 1857 की क्रांति के दौरान उत्तरप्रदेश में होली के दिन मेले का आयोजन किया गया था और सभी धर्मों के लोगों को अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट होने का आवाहन किया गया था। अंग्रेज़ अफ़सर जनरल ऑक्टोलोनी अपनी 13 बीवियों के साथ दिल्ली के कश्मीर गेट पर जश्न मनाता था तथा इनके साथ विलियम फ्रेजर व कर्नल स्किनर का परिवार भी फागुन की बयार में मदमस्त होकर रंग खेलता था।
एक ही दिन होली और मुहर्रम!
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के शासन के दौरान एक बार संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए। होली हर्षोल्लास का मौक़ा होता है, जबकि मुहर्रम मातम का दिन। ऐसे में हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं की क़द्र करते हुए उस साल होली न मनाने का फ़ैसला किया। जब नवाब को इसका पता चला तो उन्होंने कहा कि चूंकि हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं का सम्मान किया है, इसलिए अब मुसलमानों का फ़र्ज़ है कि वो भी हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें। नवाब वाजिद अली शाह ने इसके बाद घोषणा करवाकर सबको सूचित किया कि पूरे अवध में उसी दिन होली मनाई जाएगी। ख़ास बात है कि वो ख़ुद इस होली में हिस्सा लेने पहले ही पहुंच गए थे।
यह प्रसिद्ध ठुमरी वाजिद अली शाह की ही है- ‘मोरे कान्हा जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डटके, उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपटके।'
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