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अत्यंत आधुनिक हैं हमारे धर्मशास्त्र, समय के साथ बदलावों को भी स्वीकारा

तस्वीर प्रतीकात्मक है। - Dainik Bhaskar

तस्वीर प्रतीकात्मक है।

भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि पितृ-ऋण चुकाए बिना हमें मोक्ष नहीं मिलता। इसका तात्पर्य यह है कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुत्र का होना अनिवार्य है। लेकिन जरूरी नहीं है कि समाज में सभी लोग विवाह करे। कुछ लोग जीवनभर अविवाहित रहना पसंद करते हैं। फिर विवाह करने के बाद भी कुछ दंपती विभिन्न कारणों से या तो बच्चों को जन्म नहीं दे पाते या बच्चा ही नहीं चाहते। आजकल समलैंगिक विवाह की भी चर्चा हो रही है और लोग चिंता करते हैं कि क्या ऐसे जोड़े बच्चे पैदा कर पितृ-ऋण चुका पाएंगे? आइए इस विषय की जांच करते हैं।

लगभग 2000 वर्ष पहले लिखे गए हमारे धर्मशास्त्रों में झांकने पर हमें पता चलता है कि ऐसे प्रसंगों के बारे में भी चिंतन किया गया है। शास्त्रों में 13 प्रकार के पुत्रों का उल्लेख है। इसका मुख्य स्रोत याज्ञवल्क्य-स्मृति का व्यवहाराध्याय है, लेकिन विभिन्न धर्मशास्त्रों में विभिन्न सूचियां भी मिलती हैं। मोटे तौर पर 13 प्रकार के पुत्र कुछ इस तरह हैं :

1. एक ही वर्ण के माता-पिता से जन्मा पुत्र। शास्त्रों में ऐसे पुत्र को सबसे श्रेष्ठ पुत्र माना गया है।

2. जब निःसंतान पुरुष लड़के को दत्तक न ले पाने के कारण लड़की को दत्तक लेता है, तब इस लड़की का पुत्र निःसंतान पुरुष का पुत्र माना जाता है। अतः उस पुत्र को उनका श्राद्ध करने का अधिकार दिया जाता है। ऐसा पुत्र पहले प्रकार के पुत्र जितना श्रेष्ठ माना जाता है।

3. जब कोई स्त्री पति की सम्मति के साथ किसी और सगोत्र पुरुष के साथ सहवास कर पुत्र को जन्म देती हो। इस प्रथा को नियोग कहते हैं। नियोग का एक उदाहरण महाभारत में है, जहां ऋषि व्यास ने सत्यवती के अनुरोध पर उसकी विधवा बहुओं के साथ सहवास किया और धृतराष्ट्र, पांडु व विदुर को जन्म दिया।

4. वो पुत्र जिसे विवाहित स्त्री अपने पति के घर में जन्म देती हो, लेकिन जिसके जैविक पिता की पहचान गोपनीय रखी जाए। इस जैविक पिता को एक ही वर्ण का होना आवश्यक है।

5. वो पुत्र जिसे अविवाहित स्त्री अपने पिता के घर में जन्म देती हो। यदि यह स्त्री अविवाहित ही रहती है तो इस पुत्र को उसके नाना का पुत्र माना जाता है और यदि स्त्री विवाह करती है तो इस पुत्र को पिता प्राप्त होता है।

6. वो पुत्र जिसकी मां ने पुनर्विवाह के बाद उसे जन्म दिया हो।

7. जब किसी पुत्र के माता-पिता उनकी ही जाति के निःसंतान पुरुष को अपना पुत्र स्वेच्छा से गोद देते हों। यह निःसंतान पुरुष इस पुत्र को उसके माता-पिता से भेंट में प्राप्त करता है।

8. वो पुत्र जिसके जैविक माता-पिता मूल्य लेकर उसे किसी निःसंतान दंपती को बेच देते हो। वह पुत्र इस निःसंतान दंपती का पुत्र बन जाता है।

9. ऐसा पुत्र जिसके गुण परखकर उसे गोद लिया गया हो। ऐसे पुत्र का उसी जाति का होना आवश्यक है।

10. वो अनाथ बालक जो अपने आप को दत्तक लेने के लिए पेश करता हो। एक ऐसा बालक भी यह कर सकता है, जिसके माता-पिता ने उसे त्याग दिया हो।

11. वो पुत्र जो स्त्री के विवाह के समय उसके गर्भ में पल रहा हो। उसे उसकी मां के पति का पुत्र माना जाता है।

12. वो पुत्र जिसे उसके जैविक माता-पिता त्याग देते हों तथा कोई और दंपती उसे गोद लेता हो। कपिल इस तरह के पुत्र का उदाहरण है। कर्दम ऋषि ने उनकी पत्नी और कपिल की मां देवहूति को त्याग दिया था। उसी तरह जरत्कारु ने उनके पुत्र आस्तिक को त्याग दिया था।

13. वो पुत्र जो ब्राह्मण वर्ण के पुरुष और शूद्र वर्ण की स्त्री के विवाह से जन्म लेता हो। उन दिनों वर्ण मायने रखता था, इसलिए हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के पुत्र का उल्लेख मिलता है।

इस सूची से स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्रों में परिवार की परिभाषा पर बहुत ही गूढ़ विचार किया गया था, जिसे आज हम भूल चुके हैं। धर्मशास्त्रों की तुलना में आजकल हो रही बहस आदिम, पिछड़ी हुई और दकियानूसी लगती है। हमें लगता है कि केवल पाश्चात्य देश प्रगतिशील विचारों के स्रोत हैं। लेकिन अपने शास्त्रों में झांकने पर हमें पता चलता है कि प्राचीन भारत अपने विचारों में कितना आधुनिक और प्रगतिशील था। धर्मशास्त्रों के बारे में आम धारणा यही रही है कि उनकी आज के समाज में कोई प्रासंगिकता नहीं है, क्योंकि वे पुराने विचारों को दर्शाते हैं। लेकिन ऊपर की सूची से स्पष्ट होता है कि इसके बिलकुल विपरीत धर्मशास्त्र देश, काल और गुण के अनुसार बदलते आए हैं, जिस कारण वे आज भी आधुनिक और प्रासंगिक हैं।

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