मीडिया और सोशल मीडिया पर समय-समय पर पर्यावरण को नष्ट करने, जनजातीय लोगों को उनके मूल स्थलों से निकालने, उनका स्वास्थ्य खराब करने और अनुचित सामाजिक व्यवहार के लिए खनन कंपनियों की आलोचना की जाती रही है। इन आलाेचनाओं में अक्सर नेताओं, नौकरशाहों और खनन कंपनियों पर मिलीभगत करने के आरोप भी लगाए जाते हैं।
अक्सर यह भी पढ़ने में आता है कि अपनी आजीविका और मूल निवास स्थलों को बचाने के लिए ग़रीब या जनजातीय लोग कभी-कभार प्रतिरोधात्मक हिंसा का सहारा भी लेते हैं। बेशक, हम लोग खनन कंपनियों से असहमत होते हैं। लेकिन हम उनका विरोध करने वाले ग़रीबों से भी असहमत होते हैं। हम बस दोनों की निंदा करते हुए चुपचाप प्रकृति और संसार को नष्ट होते हुए देखते रहते हैं।
लेकिन कटु सच्चाई यह भी है कि प्रकृति का विनाश मानव समाज के अस्तित्व के कारण होता है। और जब तक समाज का विस्तार होता रहेगा, प्रकृति का विनाश भी होते रहेगा। यह बात हमारे ग्रंथों में भी दोहराई गई है। महाभारत का उदाहरण लेते हैं। इसमें इंद्रप्रस्थ स्थापित करने के लिए पांडव खांडवप्रस्थ को जला डालते हैं, जिससे नागों सहित उसके अन्य निवासी मारे जाते हैं। नागों का राजा तक्षक इस आग से बच निकला। उसने अपने परिवार के संहार का बदला अर्जुन के पौत्र परीक्षित की हत्या करके लिया।
जंगल जलाए बिना शहर नहीं और पेड़ काटे बिना खेत व बाग़ नहीं बनाए जा सकते। पहाड़ तोड़े बिना ग्रेनाइट नहीं खोदा जा सकता और धरती का खनन किए बिना धातुएं प्राप्त नहीं हो सकतीं। प्रकृति को साधने से ही संस्कृति का निर्माण होता है। हालांकि यह प्रक्रिया हिंसक है- सांड को बधिया करने से उसे बैल बनाया जा सकता है, ताकि उसका खेती में उपयोग हो सके और नदी के मार्ग को बदलकर ही उसका पानी खेतों तक लाया जा सकता है।
शरद ऋतु में भारतभर और विशेष रूप से बंगाल व ओडिशा में शेर पर सवार दुर्गा द्वारा महिषासुर का भाले से वध करने की भव्य प्रतिमाएं सजाईं और पूजी जाती हैं। ये प्रतिमाएं फसल कटाई के त्योहारों का भाग क्यों हैं?
पारंपरिक तौर पर उत्तर तो यह है कि देवी खलनायक का वध कर रही हैं। लेकिन यह एक एकपक्षीय और सुविधाजनक उत्तर है।
महिषा प्रकृति का प्रतीक भी तो हो सकता है, जिसे नष्ट किए बिना मां अपने बच्चों का पोषण नहीं कर सकती। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो महिषासुर का वध एक बलि के समान है। फसल प्राप्त करने के लिए रक्त का बहना आवश्यक है। एक और व्याख्या यह हो सकती है कि प्रकृति संस्कृति से बदला ले रही है। क्योंकि यदि जंगल क्षेत्रों में गतिविधियां चलती रहीं और जनजातीय लोग अपने निवास स्थलों से निकाले जाते रहे तो प्रकृति बदला लेगी, जैसे सूनामी के समय हुआ। एक न एक दिन प्रकृति का क्रोध अवश्य सामने आएगा।
क्या प्रकृति के विनाश से संस्कृति का निर्माण ही वह मूल पाप है, जिसका उल्लेख बाइबिल में किया गया है? क्या शैतान ने हमें प्रकृति में बदलाव करने के लिए लुभाया और प्रकृति को नष्ट करने के लिए विवश किया? क्या यही मानवता का आदिम अपराध है? ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और झारखंड सहित कई जगहों पर ‘विकास’ के नाम पर कच्चे धातु का खनन हो रहा है। अचानक से हम विकास की क़ीमत चुकाना नहीं चाहते हैं।
संभवतः विकास पर ग़ौर करने का समय आ गया है। हम विकास क्यों चाहते हैं? क्या हम भौतिक विकास से भावनात्मक विकास की ओर बढ़ सकते हैं, जिससे हम अधिक दयालु और अधिक सुरक्षित बनेंगे? अपने बच्चों को सिखाए जाने वाले मूल सिद्धांतों का पुनरावलोकन करना आवश्यक बन गया है।
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